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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
सर्वे च हुण्डसंस्थानाः स्फुलिङ्गसदृशेक्षणाः । विवर्द्धिताशुभध्यानाः प्रचण्डाश्चण्डशासनाः ॥ २३ ॥ अर्थ- वे सभी नारकी जीव हुंडक संस्थानवाले हैं अर्थात् जिनके शरीरका प्रत्येक अंग अति भयानक, बेडोल है और अनिके स्फुलिंगके समान जिनके नेत्र हैं, तथा प्रचण्ड, आर्त, रौद्रध्यानको बढ़ाये हुए हैं तथा क्रोधी हैं और जिनका शासन भी प्रचण्ड है ॥ २३ ॥
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तत्राक्रन्दरवैः सार्द्धं श्रूयन्ते कर्कशाः खनाः । दृश्यन्ते गृध्रगोमायुस र्पशार्दूलमण्डलाः ॥ २४ ॥
अर्थ-उस नरकभूमिमें चारों ओरसे पुकारनेके शब्द बड़े कर्कश सुने जाते हैं तथा गृध्रपक्षी, सियाल, सर्प, सिंह, कुत्ते, ये सब जीव बड़े भयानक दीखते हैं ॥ २४ ॥ घायन्ते पूतयो गन्धाः स्पृश्यन्ते वज्रकण्टकाः । जलानि पूतिगन्धीनि नद्योऽसृग्मांसकर्दमाः ॥ २५ ॥
अर्थ --- जिस नरकमूमिमें दुर्गंध सुंघनी पड़ती है और वज्रमय कांटोंसे छिदना पड़ता है और जल जहां दुर्गन्धमय हैं और रुधिरमांसका है कांदा जिनमें ऐसी नदियें हैं ॥२५॥ चिन्तयन्ति तदालोका रौद्रमत्यन्तशङ्किताः ।
hi भूमिः क चानीताः के वयं केन कर्मणा ॥ २६ ॥
अर्थ - उस स्थानको रौद्र ( भयानक ) देखकर वे नारकी गण ( जो नवीन उत्पन्न हुए हैं) अत्यन्त शंकित होकर विचारते हैं कि यह भूमि कौनसी है और हम कौन हैं, कौनसे भयानक कर्मोंने हमें यहां लाकर पटका है ॥ २६ ॥
ततो विदुर्विभङ्गात्स्वं पतितं श्वभ्रसागरे । कर्मणाऽत्यन्तरौद्रेण हिंसाद्यारम्भजन्मना ॥ २७ ॥
अर्थ-तत्पश्चात् विभङ्गावधिसे ( कुछ अवधिज्ञान से ) जानते हैं कि हिंसादिक आरं - भोंसे उत्पन्न हुए अत्यन्त रौद्र ( खोटे) कर्मसे हम नरकरूपी समुद्र में पड़े हैं ॥ २७ ॥ ततः प्रादुर्भवत्युचैः पश्चात्तापोऽति दुःसहः । दहन्नविरतं घेतो वज्राग्निरिव निर्दयः ॥ २८ ॥
अर्थ---तत्पश्चात् नारकी जीवोंके दुःसह पश्चात्ताप अतिशय करके प्रगट होता है. वह दुःसह पश्चात्ताप वज्रानिके समान निर्दय हो, चित्तको दहन करता हुआ प्रगट होता है ॥ २८ ॥
मनुष्यत्वं समासाद्य तदा कैश्चिन्महात्मभिः । अपवर्गाय संविग्नैः कर्म पूज्यमनुष्ठितम् ॥ २९ ॥