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ज्ञानार्णवः ।
विषयाशामपाकृत्य विध्याप्य मदनानलम् । अप्रमत्तैस्तपश्चीर्णं धन्यैर्जन्मार्तिशान्तये ॥ ३० ॥ उपसर्गाग्निपातेऽपि धैर्यमालम्व्य चोन्नतम् | तैः कृतं तदनुष्ठानं येन सिद्धं समीहितम् ॥ ३१ ॥ प्रमादमदमुत्सृज्य भावशुद्ध्या मनीषिभिः । केनाप्यचिन्त्यवृत्तेन खर्गो मोक्षश्च साधितः ॥ ३२ ॥ शिवाभ्युदयदं मार्ग दिशन्तोऽप्यतिवत्सलाः । मयावधीरिताः सन्तो निर्भर्त्स्य कटुकाक्षरैः ॥ ३३ ॥ अर्थ - कितने बड़े पुरुषोंने मनुष्यत्व पाकर वैराग्यसहित हो मोक्ष के लिये पूजनीय पवित्राचरण किया || २९ || और उन महाभाग्य मुनियोंने विपयोंकी आशाको दूर करके कामरूप अग्निको बुझाकर निष्प्रमादी हो, संसारपीडाकी शान्ति के लिये तपका संचये किया ॥ ३० ॥ तत्पश्चात् उन उत्तमपुरुषोंने उपसर्गरूपी अग्निको आनेपर बड़े धैर्यका आलंबन कर, वह आचरण किया कि जिससे वांछित कार्य सिद्ध हुआ ॥ ३१ ॥ तथा उन बुद्धिमान् पुरुषोंने प्रमाद और मदको छोड़कर भावकी शुद्धतासे किसी अचिन्त्य आचरण से स्वर्ग तथा मोक्ष साधा ॥ ३२ ॥ उन सत्पुरुषोंने वात्सल्य भावसे युक्त हो, ' मुझे मोक्ष और वर्ग आदिके मार्गका उपदेश किया, परन्तु मैने बड़े कटु अक्षरोंसे उनका तिरस्कार करके निंदा की, उनका उपदेश अंगीकार नहीं किया, इत्यादि पश्चात्ताप करते हैं ॥ ३३ ॥
तस्मिन्नपि मनुष्यत्वे परलोकैकशुद्धदे ।
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मया तत्संचितं कर्म यज्जातं श्वभ्रशंचलम् ॥ ३४ ॥
अर्थ - फिर भी नारकी पश्चात्ताप करता है कि परलोककी अद्वितीय शुद्धता देनेवाले उस मनुष्यभवमें भी मैने वह कर्म संचय किया कि जिससे नरकका शंबल (पाथेय - राहखर्च ) हुआ अर्थात् उस कर्म सहजमें ही नरकमें ला पटका ॥ ३४ ॥
अविद्याक्रान्तचित्तेन विषयान्धीकृतात्मना ।
चरस्थिराङ्गिसंघातो निर्दोषोऽपि हतो मया ॥ ३५ ॥
अर्थ - फिर नारकी विचारता है कि अविद्यासे आक्रान्त है चित्त जिसका तथा विष - योंसे अन्धा होकर, मैने निर्दोष त्रस स्थावरोंके समूहको मारा ॥ ३५ ॥
परवित्तामिषासक्तः परस्त्रीसंगलालसः । बहुव्यसनविध्वस्तो रौद्रध्यानपरायणः ॥ ३६ ॥ यत्स्थितः प्राक् चिरं कालं तस्यैतत्फलमागतम् । अनन्तयातनासारे डुरन्ते नरकार्णवे ॥ ३७ ॥