________________
ज्ञानार्णवः ।
३५९
अर्थ - फिर विचारता है कि मैने पूर्वभवमें पुर, ग्राम वनमें अग्नि डालकर ; दव लगाई और जलचर, थलचर; आकाशचर तथा विलोंमें रहनेवाले असंख्य जीवोंको मारा वे पूर्वके पापकर्म इस समय स्मरण आनेसे निरन्त मेरे मर्मस्थानोंको दयारहित करोंतके समान भेदते हैं ॥ ४३-४४ ॥
किं करोमि क गच्छामि कर्मजाते पुरःस्थिते । शरणं कं प्रपश्यामि वराको दैववञ्चितः ॥ ४५ ॥
अर्थ - फिर विचारता है कि ऐसे नरकोंके दुःखमें भी कर्मोंका समूह मेरे सामने है. उसके होते हुए मैं क्या करूं? कहां जाऊं ? किसकी शरण देखूं ? मैं रंक दैवसे ठगा हुआ हूं. मुझे कुछ भी सुखका उपाय नहीं दीखता ॥ ४५ ॥
निमेषमपि स्मर्तु द्रष्टुं श्रोतुं न शक्यते ।
तद्दुःखमत्र सोढव्यं वर्द्धमानं कथं मया ॥ ४६ ॥
अर्थ- फिर विचारता है कि नेत्रके टिमकार मात्र भी जिसके स्मरण करने वा सुननेकी समर्थता नहीं; प्रतिक्षण बढ़ता हुआ वह दुःख मैं कैसे सहूंंगा ! ॥ ४६ ॥ एतान्यदृष्टपूर्वाणि विलानि च कुलानि च ।
यातनाश्च महाघोरा नारकाणां मयेक्षिताः ॥ ४७ ॥
अर्थ - फिर विचारता है कि ये नरकोंके बिल तथा नारकियोंके कुल ( समूह ) तथा नारकियोंकी महातीत्र वेदनाका सहना आदि सब मैंने अदृष्ट पूर्व देखा अर्थात् अन्यत्र नहीं देखा ऐसा यहीं पर देखा ॥ ४७ ॥
विषज्वलन संकीर्ण वर्द्धमानं प्रतिक्षणम् ।
मम मूर्ध्नि विनिक्षितं दुःखं दैवेन निर्दयम् ॥ ४८ ॥
अर्थ - फिर विचारता है कि विप तथा अग्निसे व्याप्त क्षणक्षणमं बढ़नेवाले ये सब दुःख दैव (कर्म) ने दयारहित होकर, मेरे ही माथेपर डाले हैं ॥ ४८ ॥
न दृश्यन्तेऽत्र ते भृत्या न पुत्रा न च बान्धवाः । येषां कृते मया कर्म कृतं स्वस्यैव घातकम् ॥ ४९ ॥ न कलत्राणि मित्राणि न पापप्रेरको जनः । पदमप्येकमायातो मया सार्द्धं गतन्नपः ॥ ५० ॥
अर्थ - फिर ऐसा विचारता है कि जिनके लिये मैने अपने घातक पापकर्म पूर्व जन्ममं
किये इस समय_न_तो वे चाकर, न पुत्र, कलत्र, मित्र, व न पापमें प्रेरणा करनेवाले ! बांधव कोई देखनेमें आते हैं, वे ऐसे निर्लज़ हो गये कि एक पैंड भी मेरे साथ नहीं आये ॥ ४९-५० ॥