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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-नारकी फिर पश्चात्ताप करता है कि मैं परके धनमें और मांसमें अथवा परके धनरूपी मांसमें आसक्त होकर, परस्त्रीसंग करनेमें लुब्ध हुआ तथा बहुत प्रकारके व्यस. नोंसे पीडित होकर, रौद्रध्यानी हुआ ॥ ३६ ॥ पूर्वजन्ममें मैं इसप्रकार रहा, इसकारण उसका यह अनन्त पीडासे असार अपार नरकरूपी समुद्र फल आया है ॥ ३७॥
यन्मया वश्चितो लोको वराको मूढमानसः। उपायैर्बहुभिः पापैः स्वाक्षसन्तर्पणार्थिना ॥ ३८॥ कृतः पराभवो येषां धनभूस्त्रीकृते मया।
घातश्च तेऽन्न संप्राप्ताः कर्तुं तस्याद्य निष्क्रियाम् ॥ ३९ ॥ अर्थ-फिर विचारता है कि मैने भोले रंक जनोंको अति अन्यायरूप उपायोंसे इन्द्रियोंको पोषनेके लिये ठगा ॥ ३८ ॥ तथा परका धन, परकी भूमि वा स्त्री लेनेके लिये जिनका अपमान किया तथा घात किया वे लोग यहां नरकभूमिमें उसका दंड देनेके लिये आकर प्राप्त हुए हैं ॥ ३९ ॥
ये तदा शशकमाया मया वलवता हताः।
तेऽद्य जाता मृगेन्द्राभा मां हन्तुं विविधैर्वधैः ॥ ४०॥ अर्थ-उस मनुष्यभवमें जब मैं था तव तो वे शशक (खरगोश) के समान थे और मैं बलवान् था सो मैने मारा किन्तु वे आज यहां पर सिंहके समान होकर, अनेक प्रकारके घातोंसे मुझे मारनेके लिये उद्यत हैं ॥ ४० ॥
मानुष्येऽपि खतन्त्रेण यत्कृतं नात्मनो हितम् । - तदद्य किं करिष्यामि देवपौरुषवर्जितः ॥४१॥ अर्थ-फिर विचारता है कि जब मनुष्यभवमें मैं खाधीन था, तबही मैंने अपना हितसाधन नहीं किया तो अब यहां दैव और पौरुष दोनोंसे रहित होकर, क्या कर सकता हूं? यहां कुछ भी हितसाधन नहीं हो सकता ॥ ४१ ॥
मदान्धेनापि पापेन निस्त्रिंशेनास्तवुद्धिना। । विराध्याराध्यसन्तानं कृतं कर्मातिनिन्दितम् ॥ ४२ ॥ अर्थ-फिर विचारता है कि मदसे अन्धे, पापी, निर्दय नष्टवुद्धि मैने आराधने योग्य जो भले मार्गमें प्रवर्त्तनेवाले उन पूज्य पुरुषोंके सन्तानको विराधकर, निंदनीय कर्म किया ॥ ४२ ॥
यत्पुरग्रामविन्ध्येषु मया क्षिप्तो हुताशनः । जलस्थलविलाकाशचारिणो जन्तवो हताः ॥ ४३ ॥ कृन्तन्ति मम मर्माणि मर्यमाणान्यनारतम् । प्राचीनान्यद्य कर्माणि क्रकचानीव निर्दयम् ॥ ४४ ॥