________________
૨૨૮
रायचन्द्रनैनशास्त्रमालायाम् ।
सुरोरगनराधीशसेवितं श्रयते सुखम् । सातोदयवशात्प्राणी संकल्पानन्तरोद्भवम् ॥ १४ ॥ असद्योदयात्तीव्रं शारीरं मानसं द्विधा । जीवो विसह्यते दुःखं शश्वच्छ्वभ्रादिभूमिषु ॥ १५ ॥
अर्थ
- यह प्राणी सातावेदनीयके उदयके वशसे तौ देवेन्द्र, नागेन्द्र, धरणीन्द्र, व चक्रवर्त्तियोंसे सेवित तथा मनके संकल्प करते ही प्राप्त होनेवाले और असातावेदनीयके उदयसे शरीरसंबन्धी और मनसंबन्धी दो नरकादिक पृथिवियों में भोगता है । १४ - १५ ॥
सुखको प्राप्त होता है
प्रकारके तीत्र दुःख
"
दृष्टिमोहप्रकोपेन दृष्टि: साध्वी विलुप्यते । तद्विलोपान्निमज्जन्ति प्राणिनः श्वभ्रसागरे ॥ १६ ॥
अर्थ – तत्पश्चात् चौथा मोहनीय कर्म है. उसके दो मूल भेद हैं: - एक दर्शनमोहनीय और दूसरा चारित्रमोहनीय. इनमेंसे दर्शनमोहनीय नामक कर्मके प्रकोपसे ( उदयसे ) जीवोंका सम्यग्दर्शन लोपा जाता है. सम्यग्दर्शनके लोपसे जीव नरकरूपी समुद्रमें डूबता है, इस दर्शनमोहनीयकी मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व ऐसे तीन प्रकृतियें हैं ॥ १६ ॥
चारित्रमोहपाकेन नाङ्गिभिर्लभ्यते क्षणम् ।
भावशुद्ध्या खसात्कर्तुं चरणखान्तशुद्धिदम् ॥ १७ ॥
अर्थ — दूसरा चारित्रमोह कर्म है. उसके उदयसे यह प्राणी मनकी शुद्धि देनेवाले चारित्रको भावकी शुद्धतासे अंगीकार करनेके लिये क्षणमात्र भी समर्थ नहीं होता ॥ १७ ॥
लब्ध्वापि यत्प्रमाद्यन्ति यत्स्खलन्त्यथ संयमात् । सोsपि चारित्रमोहस्य विपाकः परिकीर्तितः ॥ १८ ॥
अर्थ - जो संयम ( चारित्र ) को ग्रहण करके भी जीव प्रमादरूप होता है अर्थात् संयमसे भ्रष्ट हो जाता है उसका कारण भी चारित्र मोहका उदय कहा है । भावार्थपहिले श्लोकमें तौ चारित्रमोहके उदयसे संयमको ग्रहणही न कर सकै ऐसा कहा है और यहां ऐसा कहा है कि कदाचित् चारित्रमोहके क्षयोपशम से चारित्र ( संयम ) ग्रहण कर ले तो उसमें भी प्रमाद होता है. अथवा तीव्र उदय होता है तो संयमसे भ्रष्ट भी हो जाता है । इस चारित्रमोहकी प्रकृति जो क्रोध मान माया लोभादिक २५ कषाय हैं, उनका वर्णन अन्यग्रंथोंसे जानना ॥ १८ ॥