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रायचम्जैनशास्त्रमालायाम् . हस्ती, घोड़े, पक्षी, चमर, नगरी और खाने योग्य अन्नपानादिकको तथा छत्रादिक वस्तुसमूहको पाकर सुखका आश्रय करते हैं अर्थात् भोगते हैं ॥३॥ .
क्षेत्राणि रमणीयानि सर्वर्तुसुखदानि च ।
कामभोगास्पदान्युच्चैः प्राप्य सौख्यं निषेव्यते ॥४॥ अर्थ-सर्व ऋतुओंमें सुख देनेवाले, रमणीय और काम भोगके स्थान ऐसे क्षेत्रोंको प्राप्त होकर, अतिशय सुखका अनुभव करते हैं ॥ ४ ॥
शार्दूलविक्रीडितम्। प्रासासिक्षुरयन्त्रपन्नगगरव्यालानसोप्रग्रहान्
शीर्णाङ्गान्कृमिकीटकण्टकरजाक्षारास्थिपङ्कोपलान् । कारागृङ्खलशङ्कुकाण्डनिगडक्रूरारिवैरांस्तथा
द्रव्याण्याप्य भजन्ति दुःखमखिलं जीवा भवाध्वस्थिता॥ अर्थ-संसाररूप मार्गमें रहते हुए जीव सेल तरवार, छूरा, यंत्र, बंदूक आदि शस्त्र और सर्प, विष, दुष्ट हस्ती, अग्नि, तीव्र खोटे ग्रहादिकको तथा दुर्गन्धित सड़े हुए अंग, लट, कीड़े, कांटे, रज, क्षार, अस्थि, कीच, पाषाणादिको तथा बंदीखाना(जेलखाना), सांकल, कीला, कांड, बेड़ी, क्रूर (दुष्ट), वैरी, वैर इत्यादि द्रव्यों को प्राप्त होकर; समस्त दुःखोंको भोगते हैं ॥ ५॥
निसर्गेणातिरौद्राणि भयक्लेशास्पदानि च ।
दुःखमेवानुवन्त्युच्चैः क्षेत्राण्यासाद्य जन्तवः ॥६॥ अर्थ-ये प्राणी खभावसे ही रौद्र, भय और क्लेशके ठिकाने, ऐसे क्षेत्रोंको प्राप्त होकर; अतिशय दुःखोंको ही पाते हैं ॥ ६॥
अरिष्टोत्पातनिर्मुक्तो वातवर्षादिवर्जितः।
शीतोष्णरहितः काल स्यात्सुखाय शरीरिणाम् ॥७॥ अर्थ-अरिष्ट (दुःख देनेवाले ) उत्पातसे रहित तथा पवन वर्षाआदिसे वर्जित और शीत उष्णता रहित काल जीवोंको सुखके लिये है ॥ ७ ॥
वर्षातपतुषाराख्य ईत्युत्पातादिसंकुलः। _ काला सदैव सत्वानां दुःखानलनिवन्धनम् ॥८॥ अर्थ-वर्षा, आतप, हिम (बर्फ) सहित तथा ईति कहिये खचक्र परचक्रादिकोंके उत्पात आदि सहित काल जीवोंको निरन्तर दुःखरूप अमिका कारण है॥८॥ . . . इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, कालके..संबन्धसे जो कर्मोंका उदय होता है। उसके निमित्तसे सुख, दुःख होनेका वर्णन किया । .,