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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ षट्त्रिंशं प्रकरणम् ।
-oooooआगे संस्थानविचय नामक धर्मध्यानके चौथे भेदका वर्णन करते हैं. इस ध्यान में लोकका खरूप विचारा जाता है, इसकारण लोकका वर्णन किया जाता है,
अनन्तानन्तमाकाशं सर्वतः खप्रतिष्ठितम् ।
तन्मध्येऽयं स्थितो लोकः श्रीमत्सर्वज्ञवर्णितः॥१॥ अर्थ-प्रथम तौ सर्वतरफ (चारों ओर) अनन्तानन्त प्रदेशरूप आकाश है सो वह खप्रतिष्ठित है अर्थात् आपही अपने आधारपर है। क्योंकि उससे बड़ा अन्य कोई पदार्थ नहीं है जो उसका आधार हो । उस आकाशके मध्य (वीच) में यह लोक स्थित है, सो श्रीमत्सर्वज्ञ देवने वर्णन किया है इसकारण प्रमाणभूत है. क्योंकि, असत्य कल्पना करके अन्य किसीने नहीं कहा. सर्वज्ञ भगवानने प्रत्यक्ष देखकर, जैसा है वैसा ही वर्णन किया है ॥ १॥
स्थित्युत्पत्तिव्ययोपेतैः पदार्थं श्चेतनेतरैः।
सम्पूर्णोऽनादिसंसिद्धः कर्तृव्यापारवर्जितः ॥२॥ अर्थ-यह लोक ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय (क्षय ) करके संयुक्त चेतन अचेतन पदार्थसे सम्पूर्णतया भरा हुआ है, और अनादिसंसिद्ध है. कर्ताके व्यापारसे वर्जित है अर्थात् केई अन्यमती इस लोकका कर्ता हर्ता ईश्वर आदिको कहते हैं तथा कच्छप वा शेष नागके ऊपर स्थित है इत्यादि वुद्धिकल्पित असत्यार्थ कल्पना करके कहते हैं सो वैसा नहीं है. सर्वज्ञने जैसा कहा है वैसा ही सत्य है ॥ २ ॥
ऊर्ध्वाधोमध्यभागैर्यों विभर्ति भुवनत्रयम् ।
अतः स एव सूत्र स्त्रैलोक्याधार इष्यते ॥ ३ ॥ अर्थ-तथा यह लोक ऊर्ध्व, मध्य, अधोभागसे तीन भुवनोंको धारण करता है इसकारण सूत्रके जाननेवाले तीन लोकका (तीन जगतका) आधार इस लोकको कहते हैं ॥ ३ ॥
उपर्युपरि संक्रान्तः सर्वतोऽपि निरन्तरः।
त्रिभिर्वायुभिराकीर्णो महावेगैर्महाबलैः ॥४॥ अर्थ-तथा यह लोक उपरि उपरि ( एकके उपरि एक ) सर्व तरफसे अन्तररहित महावेगवान् महाबलवाले तीन पवनोंसे बेढ़ा हुआ है ॥ ४ ॥
घनाधिः प्रथमस्तेषां ततोऽन्यो घनमारुतः। तनुवातस्तृतीयोऽन्ते विज्ञेया वायवः क्रमात् ॥५॥