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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
उक्तं च । "एको भावः सर्वभावखभावः सर्वे भावा एकभावखभावाः। एको भावस्तत्त्वतो येन वुद्धः सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुडाः ॥१॥
अर्थ-एक भाव सर्व भावोंके स्वभावखरूप है और सर्व भाव एक भावके खभावखरूप हैं। इसकारण जिसने तत्त्वसे (यथार्थपनेसे ) एक भावको जाना उसने समस्त भावोंको यथार्थतया जाना। भावार्थ-आत्माका एक ज्ञानभाव ऐसा है कि जिसमें समस्त भाव (पदार्थ) प्रतिबिम्बित होते हैं. उन पदार्थोंके आकारस्वरूप आप होता है तथा वे भाव सब वेन हैं. उनके जितने आकार हैं वे एक ज्ञानके आकार होते हैं. इसकारण, जो इसप्रकारके ज्ञानके खरूपको यथार्थ जानता है, उसने सवही पदार्थ जाने अर्थात् ज्ञान ज्ञेयाकार हुआ इसकारण ज्ञानको जाना तब सव ही जाना । क्योंकि ज्ञान ही आत्मा है, इसकारण ऐसा कहा है ॥ १॥"
यावद्यावच्च संवन्धो मम स्याद्वाह्यवस्तुभिः।
तावत्तावत्वयं खसिन्स्थितिः स्वप्नेऽपि दुघंटा ॥१४॥ अर्थ-फिर ऐसा ध्यान करै कि-जब २ मेरे बाह्य वस्तुओंसे संवन्ध होते हैं तब २ मेरी आपहीसे अपनेमें स्थिति होना स्वप्नमें भी दुर्घट है ॥ १४ ॥
तथैवैतेऽनुभूयन्ते पदार्थाः सूत्रसूचिताः।
अतो मार्गेऽत्र लग्नोऽहं प्राप्त एव शिवास्पदम् ॥१५॥ अर्थ-फिर ऐसा विचारै कि जिनसूत्रमें जो पदार्थ कहे हैं वे वैसे ही अनुभव किये जाते हैं और जैसे कहे हैं वैसे ही दीखते हैं इसकारण इस सूत्रके मार्गमें लगा हूं इस कारण मोक्षस्थान में पाया हुआ ही मानता हूं. क्योंकि, जब मार्ग पाया और उस मार्गम चला तो असली ठिकाना प्राप्त हुआ ही कहा जाता है ॥ १५॥
इत्युपायो विनिश्चयो मार्गाच्यवनलक्षणः ।
कर्मणां च तथापाय उपायश्चात्मसिद्धये ॥ १६ ॥ अर्थ-इसप्रकार पूर्वोक्त मोक्षमार्गसे नहीं छूटना है लक्षण जिसका. ऐसा तो उपाय निश्चय करना तथा वैसे ही कर्मोंका अपाय (नाश ) निश्चय करना, इसप्रकार अपाय और उपाय दोनोंका आत्माकी सिद्धिके लिये निश्चय करना चाहिये ॥१६॥
___ मालिनी। इति नयशतसीमालम्बि नि तदोषं
च्युतसकलकलकैः कीर्तितं ध्यानमेतत् । अविरतमनुपूर्व ध्यायतोऽस्तप्रमाद स्फुरति हृदि विशुद्ध ज्ञानभावत्प्रकाशः ॥ १७॥