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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् श्रीमत्सर्वज्ञनिर्दिष्टं मार्ग रत्नत्रयात्मकम् । अनासाद्य भवारण्ये चिरं नष्टाः शरीरिणः ॥२॥ मजनोन्मजनं शश्वद्भजन्ति भवसागरे।
वराकाः प्राणिनोऽप्राप्य यानपानं जिनेश्वरम् ॥ ३॥ अर्थ-इस ध्यानमें ऐसा चिन्तवन होता है कि ये प्राणी श्रीमत्सर्वज्ञजिनेन्द्र के उपदेश किये हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप मार्गको न पाकर, संसाररूप वनमें बहुत काल पर्यन्त नष्ट होते हुए अर्थात् जन्ममरण और उपार्जन किये कर्मों के नाश करनेका उपाय जो रत्नत्रय सो उन्होने नहीं पाया ॥२॥ तथा ये रंक प्राणी जिनेश्वर देवरूपी जहाजको न पाकर, संसाररूप समुद्र में निरंतर मजन उन्मजन करते हैं अर्थात् निरंतर जन्म मरण पाते रहते हैं और दुःख भोगते हैं. इसप्रकार चिन्तन करै ॥ ३ ॥
महाव्यसनसतार्चिः प्रदीसे जन्मकानने ।
भ्रमताऽध मया प्रासं सम्यग्ज्ञानाम्बुधेस्तटम् ॥ ४॥ अर्थ-फिर ऐसा चिंतन करै कि-महान् कप्टरूपी अमिसे प्रज्वलित इस संसार रूपी वनमें भ्रमण करता हुआ मैं इस समय सम्यग्ज्ञानरूपी समुद्रका तट (किनारा) पागया ॥१॥
अद्यापि यदि निर्वेदविवेकागेन्द्रमस्तकात् ।
स्खलेत्तदैव जन्मान्ध-कूपपातोऽनिवारितः ॥५॥ अर्थ-फिर इसप्रकार चिन्तन करै कि मैंने इस समय सम्यग्ज्ञान पाया है, सो यदि अब भी वैराग्य और भेदज्ञानरूप पर्वतके शिखरसे पडूं तो संसाररूप अंधकूपमें अवश्य पड़ना होगा ॥ ५॥
अनादिभ्रमसंभूतं कथं निर्वायते मया।
मिथ्यात्वाविरतिप्रायं कर्मबन्धंनिवन्धनम् ॥ ६ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् इसप्रकार चिन्तन करै कि-अनादि अविद्यासे उत्पन्न हुए तथा जिसमें मिथ्यात्व व अविरतकी बहुलता है ऐसे कर्मबंध होनेके कारण मुझसे किसप्रकार निवारण किये जायगे ॥ ६॥ .
सोऽहं सिद्धः प्रसिद्धात्मा इग्बोधविमलेक्षणः।
जन्मपङ्के चिरं खिन्नः खण्ड्यमान: खकर्मणा ॥७॥ अर्थ-फिर ऐसा चिन्तन करै कि-प्रसिद्ध है खरूप जिसका ऐसा मैं सिद्ध हूं, दर्शन ज्ञान ही निर्मल नेत्र हैं जिसके ऐसा हूं तथापि संसाररूपी कीचड़में अपने उपार्जन किये हुए कर्मोंसे खंड २ किया चिरकालसे खेदखिन्न हुआ हूं ॥ ७ ॥