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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विषयेषु न तत्किञ्चित्स्याद्धितं यच्छरीरिणाम् ।
तथाप्येष्वेव कुर्वन्ति प्रीतिमज्ञा न योगिनः ॥ ६७॥ अर्थ-यद्यपि इन इन्द्रियों के विषयोंमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो जीवोंका हितकर हो तथापि ये अज्ञानी :: .. मूर्ख प्राणी उन विषयों में ही प्रीति करते हैं. (सो यह अज्ञानकी चेष्टा है)। ६७ ॥
अनाख्यातमिवाख्यातमपि न प्रतिपद्यते ।
आत्मानं जडधीस्तेन वन्ध्यस्तत्र ममोद्यमः॥१८॥ __ अर्थ-जडधी (मूर्ख) कहते हुए भी विना कहेकी समान आत्माको प्राप्त नहीं होता सो यहां मेरे कहनेका उद्यम वृथा (निष्फल) है. इस प्रकार विचार करै ॥६॥
तन्नाहं यन्मया किश्चित्प्रज्ञापयितुमिष्यते ।
योऽहं न स परग्राह्यस्तन्मुधा वोधनोद्यमः ॥ ६९॥ अर्थ-जो कुछ मैं परको जनाना चाहता हूं सो मैं वह आत्मा नहीं हूं और जो मैं आत्मा हूं वह आत्मा परके ग्रहण करने योग्य नहीं है। इसकारण मेरे परके संवोधनका जो उद्यम है, सो वृथा है. क्योंकि, आत्मा आपहीसे जाना जाता है. परका कहना सुनना निमित्तमात्र है. इसकारण इसमें आग्रह करना वृथा है ॥ ६९॥
निरुद्धज्योतिरज्ञोऽन्तः खतोऽन्यत्रैव तुष्यति ।
तुष्यत्यात्मनि विज्ञानी बहिर्विगतविभ्रमः ॥७॥ अर्थ-अज्ञानी तो अपनेसे भिन्न पर वस्तुमें ही सन्तुष्ट होता है, क्योंकि, उसकी अन्तर्ज्योति रुद्ध होगई है. और ज्ञानी पुरुष आत्मामें ही सन्तुष्ट होता है। क्योंकि, उसके बाह्य विभ्रम नष्ट हो गया है ॥ ७० ॥
यावदात्मेच्छया दत्ते वाचित्तवपुषां व्रजम् ।
जन्म तावदमीषां तु भेदज्ञानावच्युतिः ॥ ७१॥ अर्थ-यह प्राणी जबतक वचन मन कायके समूहको आत्माकी इच्छासे ग्रहण करता है तबतक इसके संसार है तथा इनका जब भेदज्ञान होता है तब उससे संसारका अभाव होता है ॥ ७१ ॥
जीर्णे रक्ते घने ध्वस्ते नात्मा जीर्णादिकः पटे।
एवं वपुषि जीर्णादौ नात्मा जीर्णादिकस्तथा ॥ ७२॥ अर्थ-जिसप्रकार वस्त्रके जीर्ण होते, रक्त होते, दृढ होते वा नष्ट होते आत्मा वा शरीर जीर्ण रक्तादिक खरूप नहीं होता, उसी प्रकार शरीरके जीर्ण वा ध्वस्त होते हुए आत्मा जीर्णादिकरूप नहीं होता. यह दृष्टान्त दान्त जानना ॥ ७२ ।।
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