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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जब अन्तर आतम होय करि, करै शुद्ध उपयोग मुनि ।
तव शुद्ध आतमा ध्याय करि, लहै मोक्ष सुखमय अवनि ॥ ३१ ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारस्वरूपे ज्ञानार्णवे शुद्धोपयोगवर्णनं
नाम द्वात्रिंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ३२ ॥
अथ त्रयस्त्रिंशं प्रकरणम् ।
आगे धर्मध्यानके भेदोंका वर्णन करते हैं-उसमेंसे प्रथम ही भेदोंकी उत्पत्ति के लिये सामान्यतासे कहते हैं,
अनादिविभ्रमान्मोहादनभ्यासादसंग्रहात् ।
ज्ञातमप्यात्मनस्तत्त्वं प्रस्खलत्येव योगिनः॥१॥ अर्थ-योगी (मुनि ) आत्माके खरूपको यथार्थ जानता हुआ भी अनादि विभ्रमकी वासनासे, तथा मोहके उदयसे, तथा विना अभ्याससे और उस तत्त्वके संग्रहके अभावसे मार्गसे च्युत हो जाता है अर्थात् मुनि भी तत्त्वखरूपसे चलायमान हो जाता है ॥१॥ फिर भी कहते हैं,
अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । __योज्यमानमपि खस्मिन् न चेतः कुरुते स्थितिम् ॥ २॥
अर्थ-- तथा आत्माके खरूपको यथार्थ जानकर, अपने में जोड़ता हुआ भी अर्थात् ध्यानसे एकाग्र लगाता हुआ भी अविद्याकी वासनासे-वेगसे विशेषतया विवश है आत्मा जिनका उनका चित्त स्थिरताको नहीं धारण करता ॥ २ ॥
साक्षात्कर्तुंमतः क्षिप्रं विश्वतत्त्वं यथास्थितम् ।
विशुद्धिं चात्मनः शश्वदस्तुधम स्थिरीभवेत् ॥ ३ ॥ अर्थ-इस प्रकार पूर्वोक्त ध्यानके विनके कारण दूर करनेके लिये तथा समस्त वस्तुओंके खरूपका यथास्थित तत्काल साक्षात् करनेके लिये तथा आत्माकी विशुद्धता करनेके लिये निरन्तर वस्तुके धर्ममें स्थिरीभूत होवे । भावार्थ-ध्येयमें एकाम मनका लगना ध्यान हैं । उसमें विघ्नके पूर्वोक्त कारण हैं । इनको दूर करनेके लिये समस्त वस्तुका यथार्थ खरूप निश्चय करके शयादिकरहित वस्तुके धर्ममें ठहरै । यह धर्मध्यानकी सिद्धिका उपाय हैं, विशेषतासे कहते हैं ॥ ३ ॥
अलक्ष्यं लक्ष्यसंबन्धात् स्थूलात्सूक्ष्म विचिन्तयेत् । सालम्बाच निरालम्ब तत्ववित्तत्वमासा ॥४॥