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ज्ञानार्णवः ।
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अर्थ-तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्त्वको प्रकटतया चितवन करै कि—लक्ष्यके (जो अपने लखनेमें आवै उसके ) सम्बन्धसे तौ अलक्ष्यको ( जो अनुभवगोचर नहीं उसको ) चितवन करे और स्थूल इन्द्रियगोचर पदार्थसे सूक्ष्म इन्द्रियोंके अगोचर पदार्थोंको चितवन करै. इसी प्रकार — सालम्ब कहिये किसी ध्येयका आलंबन लेकर, उससे निरालम्ब वस्तु खरूपसे तन्मय होना चाहिये । भावार्थ - दृष्ट पदार्थ के सम्बन्धसे अटका ध्यान करना कहा गया है. यहां प्रकरण में परमात्मादित्यान है और परमात्मा जो अर्हन्त सिद्ध परमेष्ठी हैं वे छद्मस्थ करके ( अल्प ज्ञानीके ) दृष्ट नहीं हैं तथा उनकी समान अपना स्वरूप निश्चय नयसे कहा है वह भी शक्तिरूप है, सो वह भी छद्मस्थके ज्ञानगोचर नहीं है (अदृष्ट है ). इस कारण छद्मस्त्रके अपने क्षयोपशम ज्ञानका उपयोग दृष्ट है. सो इसीके संबंध सर्वज्ञ आगमसे परमात्माका स्वरूप निश्चय कर, श्रुतज्ञानके भेदरूप शुद्ध नयके द्वारा परमात्माका ध्यान करना चाहिये. इसीसे परात्मपदकी प्राप्ति होती है ॥ ४ ॥
अब धर्मध्यानके भेदोंको कहते हैं,
आज्ञापायविपाकानां क्रमशः संस्थितेस्तथा ।
वियो यः पृथक् तद्धि धर्मध्यानं चतुर्विधम् ॥ ५ ॥ अर्थ – आज्ञा, अपाय, विपाक तथा संस्थान इनका भिन्न भिन्न विचय ( विचार ) अनुक्रमसे करना ही धर्मध्यानके चार प्रकार हैं। यहां विचय नाम विचार करने अर्थात् चितवन करनेका है. तथा इन चारों प्रकारोंके नाम इस प्रकार कहने चाहिये - आज्ञाविचय ९, अपायविचय २, विपाकविचय ३, और संस्थानविचय ४ ॥ ५ ॥
अव प्रथम आज्ञा विचय नामा धर्मध्यानका वर्णन करते हैं, - वस्तुतत्त्वं खसिद्धान्तं प्रसिद्धं यत्र चिन्तयेत् । सर्वज्ञाज्ञाभियोगेन तदाज्ञाविचयो मतः ॥ ६ ॥
अर्थ - जिस धर्मध्यान में अपने जैन सिद्धान्तमें प्रसिद्ध वस्तुस्वरूपको सर्वज्ञ भगवानकी आज्ञाकी प्रधानतासे चितवन करे सो आज्ञविचयनामा धर्मध्यानका प्रथम भेद है ॥ ६ ॥ अनन्तगुणपर्यायसंयुतं तत्रयात्मकम् ।
त्रिकालविषयं साक्षाज्जिनाज्ञासिद्धमामनेत् ॥ ७ ॥
अर्थ — आज्ञाविचय धर्मध्यानमें तत्त्व अनन्त गुण पर्यायौंसहित त्रयात्मक त्रिकालगोचर साक्षात् जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञासे सिद्ध हुआ चितवन करै ( मानै ) ॥ ७ ॥
उक्तं च ।
"सूक्ष्मं जिनेन्द्रवचनं हेतुभिर्यन्न हन्यते ।
आज्ञासिद्धं च तद्वाद्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥ १ ॥
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