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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तथा अमूर्तीक हूं अर्थात् स्पर्शादिकसे रहित हूं, तथा कल्पनातीत हूं और चैतन्य तथा आनंदमय हूं, इत्यादि ।। ९९ ॥
मुच्येताधीतशास्त्रोऽपि नात्मेति कल्पयन्वपुः ।
आत्मन्यात्मानमन्विष्यन् श्रुतशून्योऽपि मुच्यते ॥ १० ॥ अर्थ-शरीरमें यह शरीर ही आत्मा है, इस प्रकार अभ्यास करता हुआ वा जानता हुआ पुरुष यदि अधीतशास्त्र (पढ़े हैं शास्त्र जिसने ऐसा ) है, तथापि कर्मसे नहीं छूटता है अर्थात् मुक्त नहीं हो सकता है। तथा शास्त्रसे शून्य है और आत्मामें ही आत्माको जानता वा मानता है, तो कर्मसे छूटकर; मुक्त हो जाता है । भावार्थ-शास्त्रज्ञान भी आत्मज्ञानके लिये है. जो आत्मज्ञान नहीं हुआ तो शास्त्र पढ़नेसे क्या फल ? अर्थात् व्यर्थही है ॥१०॥
पराधीनसुखाखादनिर्वेदविशदस्य ते ।
आत्मैवामृततां गच्छन्नविच्छिन्नं खमीक्षते ॥ १०१ ।। अर्थ हे आत्मन् ! पराधीन इन्द्रियजनित सुखके आखादमें वैराग्य है स्पष्ट जिसके ऐसा जो तू तिसका आत्मा ही अमृतपनको प्राप्त होता हुआ अविच्छेदरूप अपनेको देखता है । भावार्थ-इन्द्रियसुखका आखाद छोड़नेपर ऐसा न जान कि अब सुख नहीं है किन्तु यह तेरा आत्मा ही अमृतमय हो जाता है और उस अमृतके आखादसे जन्म मरणसे रहित अमर होता है ॥ १०१ ।।
यद्भ्यस्तं सुखाद् ज्ञानं तदुःखेनापसर्पति ।
दुःखैकशरणस्तस्माद्योगी तत्त्वं निरूपयेत् ॥ १०२॥ अर्थ-जो ज्ञान सुखसे अभ्यास किया है, वह ज्ञान प्रायः दुःख आनेपर चला जाता है, इस कारण योगी दुःखको ही अंगीकार करके तत्त्वका अनुभव करता है । भावार्थ-जो तीव्र तप आचरण करता है, वह परीपह आ जानेपर डिगता नहीं; अर्थात् दुःख आवै तो भी अपने ज्ञानाभ्यासको नहीं छोड़ता ॥ १०२ ।।
मालिनी। . निखिलभुवनतत्त्वोभासनैकप्रदीपं । निरुपधिमधिरूढं निर्भरानन्दकाष्ठाम् । परममुनिमनीषोद्भेदपर्यन्तभूतं
परिकलय विशुद्धं खात्मनात्मानमेव ॥ १०३ ॥ अर्थ हे आत्मन् ! तू अपने आत्माको अपने आत्मासे ही इस प्रकार विशुद्ध (निर्मल) अनुभव कर कि यह आत्मा समस्त लोकके यथार्थ खरूपको प्रगट करनेवाला अद्वि