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ज्ञानार्णवः ।
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अर्थ - जैसे वर्तिका (बत्ती ) दीपको प्राप्त होकर, दीपक हो जाती है; उसी प्रकार यह आत्मा अपनेको सिद्धखरूप अनुभव करके, सिद्धपनको प्राप्त हो जाता है ॥ ९४ ॥ आराध्यात्मानमेवात्मा परमात्मत्वमश्नुते ।
यथा भवति वृक्षः स्त्रं स्वेनोद्धृष्य हुताशनः ॥ ९५ ॥
अर्थ - आत्मा आत्माको ही आराध्य कर, परमात्मपनको प्राप्त होता है; जैसे वृक्ष जाता है । भावार्थ — जैसे वाँसोंके परस्पर घिस - उसी प्रकार आत्मा, आत्माका आराधन करनेसे
अपनेको आपहीसे घिसकर अग्नि हो नेसे उनमें अग्नि उत्पन्न हो जाती है; परमात्मा हो जाता है ॥ ९५ ॥
इत्थं वाग्गोचरातीतं भावयन्परमेष्ठिनम् । आसादयति तद्यस्मान्न भूयो विनिवर्तते ॥ ९६ ॥
अर्थ - यह आत्मा पूर्वोक्त प्रकार वचनके अगोचर परमेष्ठीको भावता हुआ उस पदको पाता है कि जिस पदसे फिर निवृत्त ( लौटना ) न हो अर्थात् जो छूटै नहीं, ऐसे सिद्ध पदको प्राप्त होता है ॥ ९६ ॥
अयनजनितं मन्ये ज्ञानिनां परमं पदम् ।
यदात्मन्यात्मविज्ञानमात्रमेव समीहते ॥ ९७ ॥
अर्थ - जो यह आत्मा आत्मामें ही विज्ञानमात्रको सम्यक्प्रकार चाहता है, तो जानना चाहिये कि ज्ञानियोंके परमपद विना यलके ही हो गया. 'मैं ऐसा मानता हूं' इस प्रकार आचार्य महाराजने संभावना कि है ॥ ९७ ॥
दृष्टविनाशोऽपि यथात्मा न विनश्यति ।
जागरेऽपि तथा भ्रान्तेरुभयत्राविशेषतः ॥ ९८ ॥
अर्थ—जैसे खममें अपनेको नष्ट हुआ देख लेनेसे आत्मा नष्ट नहीं होता - उसी प्रकार जागते हुए भी विनाश नहीं है; किन्तु दोनों जगह विनाशके भ्रमका अविशेष है । भावार्थ - खममें अपनेको मरा हुआ मानैं, उसी प्रकार जागनेपर भी मरा हुआ मानै तो यह भ्रम ही है. आत्मा सदा अमर है. आत्माका मरण मानना भ्रम है ॥ ९८ ॥ अतीन्द्रियमनिर्देश्यममूर्त कल्पनाच्युतम् ।
चिदानन्दमयं विद्धि खस्मिन्नात्मानमात्मना ॥ ९९ ॥
अर्थ - हे आत्मन् | तू आत्माको आत्माहीमें आपहीसे ऐसा जान कि, मैं अतीन्द्रिय हूं अर्थात् मेरे इन्द्रिय नहीं अथवा मैं इन्द्रियोंके गोचर नहीं हूं । अथवा इन्द्रियोंके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, और शब्द विषय मुझ ( आत्मा ) में नहीं हैं, इस कारण अतीन्द्रिय हूं, तथा अनिर्देश्य हूं - ( वचनोंके द्वारा कहनेमें नहीं आता ) ऐसा हूं,