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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-जाति (क्षत्रियादिक) और लिंग मुनि श्रावकादिकका वेष ये दोनों ही देहके आश्रित हैं। तथा इस देहखरूप संसार है इससे मुनि इन जाति लिंग दोनोंको ही त्यागता है, अर्थात् इनका अभिमान नहीं रखता ॥ ८९ ॥
अभेदविद्यथापनोर्वेत्ति चक्षुरचक्षुषि। ___ अङ्गेऽपि च तथा वेत्ति संयोगादृश्यमात्मनः ॥९॥ अर्थ-जिसप्रकार अंधेके कन्धेपर पांगुला चढ़कर चलता है, उनका भेद न जाननेवाला कोई पुरुष पंगुके नेत्रोंको अन्धेके नेत्र जानता है, उसी प्रकार आत्मा और देहका संयोग है. सो इनका भेद नहीं जाननेवाला अज्ञानी आत्माके दृश्यको अंगका ही दृश्य (देखने योग्य ) जानता है ॥ ९० ॥
भेदविन्न यथा वेत्ति पङ्गोश्चक्षुचरक्षुषि ।
विज्ञातात्मा तथा वेत्ति न काये दृश्यमात्मनः ॥ ११ ॥ अर्थ-जिस प्रकार पंगु और अन्धेका भेद जाननेवाला पुरुष पंगुके नेत्रोंको अंधेके नेत्र नहीं जानता, उसीप्रकार आत्मा और देहके भेदको जाननेवाला पुरुष आत्माके दृश्य (देखने योग्य) को देहका नहीं जानता । क्योंकि आत्मा चैतन्य ज्ञानवान् है। परन्तु देहके विना चल नहीं सकता इस कारण वह पंगुके समान; और देह अचेतन (जड़) है, इस कारण वह अंधेके समान है. इस भेदको जो जानता है, वह देहमें न जानकर, आत्मामें ही आत्माको जानता है ॥ ९१॥
मत्तोन्मत्तादिचेष्टासु यथाज्ञस्य खविभ्रमः।
तथा सवाखवस्थासुन कचित्तत्त्वदर्शिनः ॥ ९२॥ अर्थ-जिस प्रकार अज्ञानीके मत्त उन्मत्त आदि चेष्टाओंमें आत्माका विभ्रम होता है अर्थात् अज्ञानी अपनेको मूल जाता है और जब चेत करता है तब अपनेको जानता है; उसी प्रकार तत्त्वदर्शीके सब ही अवस्थाओंमें विभ्रम नहीं है अर्थात् सदा ही समस्त अवस्थाओंमें आत्मा जानता है, भूलता कभी नहीं है. भावार्थ-आत्मज्ञानी सम्यग्हष्टिके सर्व अवस्थाओंमें कर्मोंकी निर्जरा होती है ॥ ९२ ॥
देहात्मन मुच्येत चेजागर्ति पठत्यपि। .
सुप्सोन्मत्तोऽपि मुच्येत खस्मिन्नुत्पन्ननिश्चयः ॥ ९३ ॥ अर्थ-जिसकी देहमें ही आत्मदृष्टि है ऐसा मिथ्यादृष्टि वहिरात्मा यदि जागता है तथा पढ़ता है (वचन उच्चार करता है) तो भी वह कर्मोंसे नहीं छूटता और जिसके आत्मामें निश्चय हो गया है यह सोता तथा उन्मत्त हुआ भी कर्मवन्धनसे छूट जाता है ॥ ९३ ॥
आत्मानं सिद्धमाराध्य प्राप्नोत्यात्मापि सिद्धताम् । वर्तिः प्रदीपमासाद्य यथाभ्येति प्रदीपताम् ॥.९४ ॥