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ज्ञानार्णवः।
३२.७ तथा अन्य कार्योको वचन और कायसे करे. चित्तसे नहीं करै. चित्तसे तो आत्माका ही अभ्यास करै ॥ ६१॥
विश्वासानन्दयोः स्थानं स्याजगदज्ञचेतसाम् ।
कानन्दः क च विश्वासः स्वस्मिन्नेवात्मवेदिनाम् ॥ ६२॥ अर्थ-अज्ञानचित्तवालोंके तो यह जगत् विश्वास और आनन्दका स्थान है . और अपने आत्माहीमें आनन्दके जाननेवालोंके कहां तो आनंद और कहां विश्वास ? अर्थात् कहीं भी नहीं, अपनेमें ही आनन्दरूप है ॥ ६२ ॥
खबोधादपरं किञ्चिन्न स्वान्ते विभृयात्क्षणम् ।।
कुर्यात्कार्यवशात्किञ्चिदाकायाभ्यामनादृतः ॥ ६३ ॥ अर्थ-आत्मज्ञानी मुनि ज्ञानके सिवाय किसी कार्यको मनमें क्षणमात्र भी नहीं . धारण करता. यदि अन्य कार्योको किसी कारणवशतः करता भी है तो वचन और कायसे विना आदरके करता है। मनमें तो ज्ञानकी ही वासना निरन्तर रहती है ।। ६३ ।।
यदक्षविपयं रूपं मद्रूपातद्विलक्षणम् । __आनन्दनिभरं रूपमन्तज्योतिर्मयं मम ॥ ६४ ॥
अर्थ-आत्मज्ञानी मुनि यह विचारता है कि जो इन्द्रियोंके विषयरूप मूर्ति है सो तो मेरे आत्मस्वरूपसे विलक्षण है. मेरा रूप तो आनन्दसे भरा अन्तरंग ज्योतिर्मयी (ज्ञानप्रकाशमय ) है ॥ ६४ ॥
अन्तर्दुःखं वहिः सौख्यं योगाभ्यासोद्यतात्मनाम् ।
सुप्रतिष्ठितयोगानां विपर्यस्तमिदं पुनः ।। ६५ ॥ अर्थ-योगके अभ्यासमें उद्यमरूप है आत्मा जिनका ऐसे साधक मुनियोंके अन्तरंगमें दुःख और वाह्यमें सुख है और जिनका योग सुप्रतिष्ठित है, उनके इससे विपर्यस्त है अर्थात् अन्तरंगमें तो सुख है और बाह्यमें दुःख है; भावार्थ-योगी साधक अवस्थामें तो योगाभ्यासको सुखरूप जान, उद्यम करता है। परन्तु साधन करते समय कुछ पीड़ा होती है और जब अभ्यास सिद्ध हो जाता है तव परके देखने में तौ दुःख दीखता है किन्तु अन्तरंगमें सुखी होता है ॥ ६५ ॥
तद्विज्ञेयं तदाख्येयं तच्छ्रव्यं चिन्त्यमेव वा। __ येन भ्रान्तिमपास्योचैः स्यादात्मन्यात्मनः स्थितिः ।। ६६ ॥
अर्थ-मुनिजनोंको यह करना योग्य है कि जिससे भ्रान्तिको छोड़कर, आत्माकी स्थिति आत्मामें ही हो और यही विषय जानना चाहिये तथा इसको ही वचनसे कहना व सुनना तथा इसको ही विचारना चाहिये ॥ ६६ ॥