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ज्ञानार्णवः । अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिनः केन वर्ण्यते। __ अज्ञानी वध्यते यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते ॥ ३८ ॥ अर्थ-अहो! देखो. ज्ञानीपुरुषका यह बड़ा अलौकिक चरित्र किससे वर्णन किया जाय ? क्योंकि, जिस आचरणमें अज्ञानी कर्मसे बँध जाता है उसी आचरणमें ज्ञानी वन्धसे छूट जाता है. यह आश्चर्यकी बात है |॥ ३८॥
यजन्मगहने खिन्नं प्राझया दुःखसंकुले। __तदात्मेतरयोनमभेदेनावधारणात् ।। ३९ ॥ अर्थ-फिर ऐसा विचार करै कि 'मैं दुःखसे भरे हुए इस संसाररूप गहन वनमें जो खेद खिन्न हुआ सो आत्मा और अनात्माके अभेदके द्वारा अवधारणासे हुए भेदविज्ञानके विना ही संसारमें दुःखी हुआ हूं. ऐसा निश्चय करै ॥ ३९ ॥
मयि सत्यपि विज्ञानप्रदीपे विश्वदर्शिनि ।।
कि निमन्जत्ययं लोको वराको जन्मकर्दमे ॥ ४०॥ अर्थ-मुझ समस्तको दिखानेवाले ज्ञानस्वरूप दीपकके होते हुए भी यह वराक लोक संसाररूपी कर्दममें क्यों डूबता है अर्थात् आत्माकी ओर क्यों नहीं देखता ? जिससे संसाररूपी कर्दममें न दुवै. इसप्रकार देखे ॥ ४० ॥
आत्मन्येवात्मनात्मायं स्वयमेवानुभूयते ।
अतोऽन्यत्रैव मां ज्ञातुं प्रयासः कार्यनिष्फलः ॥४१॥ अर्थ-यह आत्मा आत्माम ही आत्माके द्वारा खयमेव अनुभवन किया जाता है. इससे अन्यत्र आत्माके जाननेका जो खेद है सो कार्यनिष्फल है अर्थात् उस कार्यका फल नहीं है. इसप्रकार जाने ॥ ४१ ॥
स एवाह स एवाहमित्यभ्यस्यन्ननारतम् ।
वासनां दृढयन्नेव प्राप्नोत्यात्मन्यवस्थितिम् ॥ ४२ ॥ अर्थ-वही मैं हूं, वही मैं हूं' इसप्रकार निरन्तर अभ्यास करता हुआ पुरुष । इस वासनाको दृढ करता हुआ आत्मामें अवस्थितिको प्राप्त होता है अर्थात् ठहर । जाता है ॥ १२॥ फिर भी विचार करता है,--
स्यायद्यत्प्रीतयेऽज्ञत्य तत्तदेवापदास्पदम् ।
विभेत्ययं पुनयमिंस्तदेवानन्दमन्दिरम् ॥ ४३ ।। अर्थ-अज्ञानी पुरुपके जो जो विपयादिक वस्तु प्रीतिके अर्थ है वह वह ज्ञानीके आपदाका स्थान है तथा अज्ञानी जिस तपश्चरणादिमें भय करता है वही ज्ञानीके आनन्दका निवास है क्योंकि, अज्ञानीको अज्ञानके कारण विपर्यय भासता है ॥ १३ ॥