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ज्ञानार्णवः। यजनरपि योध्योऽहं यजनान्योधयाम्यहम् ।
तद्विभ्रमपदं यस्मादहं विधुतकल्मपः ॥ २६ ॥ अर्थ-जो 'लोगोंद्वारा मैं संवोधनेयोग्य हूं तथा जो मैं लोगोंको संवोधता हूं' ऐसा भाव है वह भी विभ्रमका स्थान है । क्योंकि, मैं तो पापसे रहित हूं अर्थात् आत्मा तो निष्कलंक है. इसे कौन संबोधै ? और यह किसको संवोधै ? ॥ २६ ॥
यः स्वमेव समादत्ते नादत्ते यः स्वतोऽपरम् ।
निर्विकल्पः स विज्ञानी स्वसंवेद्योऽस्मि केवलम् ॥ २७॥ __ अर्थ-जो आत्मा आपको ही ग्रहण करता है तथा आपसे पर है उसको नहीं ग्रहण करता है सो यह विज्ञानी (भेदज्ञानी) विकल्परहित होकर, इसप्रकार भावना करता है कि मैं एक अपने ही जाननेयोग्य हूं. इसप्रकार विचार कर परसे परस्पर देने लेनेका व्यवहार छोड़ देता है ॥ २७ ॥
जातसर्पमतेर्यदच्छ्वलायां क्रियानमः ।
तथैव मे क्रियाः पूर्वास्तन्वादौ स्वमिति भ्रमात् ॥ २८॥ ___ अर्थ-जिसकी सांकलमें सर्पकी बुद्धि है ऐसे पुरुषके जैसे क्रियाका भ्रम होता है, उसी प्रकार मेरे भी शरीरादिकमें आत्मबुद्धिरूप भ्रमसे भेदज्ञान होनेसे पहिले समरूप क्रिया अनेक हुई ॥ २८ ॥
शृङ्खलायां यथा वृत्तिर्विनष्टे भुजगभ्रमे ।
तन्वादौ मे तथा वृत्तिनष्टात्मविभ्रमस्य वै ।। २१ ॥ अर्थ-तथा जब सांकलमें सर्पका भ्रम था सो नष्ट हो जानेपर सांकलमें जिसप्रकार यथावत् प्रवृत्ति होती है उसीप्रकार मेरे शरीरादिकमें आत्माका भ्रम नष्ट होजानेपर मैं अमसे रहित हो गया तब मेरे शरीरादिकमें यथावत् प्रवृत्ति होगई । उनको परद्रव्य मानै तब ऐसी भावनासे परद्रव्यका ममत्व छोड़े ॥ २९ ॥
एतदेवैप एकं दे वहनीति धियः पदम् ।
नाहं यच्चात्मनात्मानं वेत्त्यात्मनि तदस्म्यहम् ॥३०॥ अर्थ-तथा इसप्रकार विचार करै कि-यह तो नपुंसक हैं, यह स्त्री है और यह पुरुप है तथा यह एक है, दो हैं, वहुत हैं ऐसे लिंग और संख्याकी बुद्धिका स्थान में नहीं हूं । क्योंकि मैं तो अपनेद्वारा अपनेको आपहीमें जाननेवाला हूं । इसपकार लिंगसंख्याका विकल्प भी छोड़े ॥ ३०॥
यदवोधे मया सुप्तं यहोघे पुनरुत्थितम् । तद्रूपं मम प्रत्यक्षं स्वसंवेद्यमहं किल ॥ ३१ ॥