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ज्ञानार्णवः।
३१९ मानता है सो भ्रम है. क्योंकि, पर्यायका रूप आत्माका रूप नहीं है. आत्माका रूप तो अमूर्तीक है, खसंवेद्य है, अर्थात् अपनेही द्वारा अपनेको जाननेयोग्य है ॥ १३-१४ ॥
खशरीरमिवान्विष्य पराङ्गं च्युतचेतनम् ।
परमात्मानमज्ञानी परबुद्ध्याऽध्यवस्यति ॥ १५॥ अर्थ-तथा वहीं बहिरात्मा अज्ञानी जिसप्रकार अपने शरीरको आत्मा जानता है उसीप्रकार परके अचेतन देहको देखकर परका आत्मा मानता है अर्थात् उसको परकी बुद्धिसे निश्चय करता है ॥ १५ ॥
खात्मेतरविकल्पैस्तैः शरीरेष्ववलम्वितम् ।
प्रवृत्तचितं विश्वसनात्मन्यात्मदर्शिभिः ॥ १६॥ अर्थ-अपने शरीरमं तो अपना आत्मा जाने और परके शरीरमें परका आत्मा जाने इसप्रकार शरीरोंमें अवलंबनस्वरूप प्रवते हुए विकल्पोंसे अनात्मामें आत्माके देखनेवाले अज्ञानी जोंने इस लोकको ठग लिया ॥ १६ ॥
ततः सोऽत्यन्तभिन्नेषु पशुपुत्राङ्गनादिपु ।
आत्मत्वं मनुते शश्वदविद्याज्वरजिह्मितः ॥ १७॥ अर्थ-इस कारणले मिथ्याज्ञानरूपी ज्वरसे निरंतर पीडित होकर वह वहिरात्मा अज्ञानी अपनेसे अत्यन्त भिन्न पशु पुत्र स्त्री आदिकमें भी आत्मपना मानता है ॥ १७ ॥
साक्षात्वानेव निश्चित्य पदार्थाश्चेतनेतरान् ।
स्वस्यैव मन्यते मृढस्तन्नाशोपचयादिकम् ॥ १८॥ अर्थ-यह मूढ बहिरात्मा अपनेसे भिन्न चेतन अचेतन पदार्थोको साक्षात् अपने ही निश्चय करके उनके नाश होने और संचय होनेमें अपना ही नाश और संचय होना मानता है ॥ १८ ॥
अनादिप्रभवः सोऽयमविद्याविपमग्रहः।
शरीरादीनि पश्यन्ति येन स्वमिति देहिनः ॥ १९ ॥ अर्थ-यह पूर्वोक्त अनादिसे उत्पन्न हुआ अविद्यारूपी विषम आग्रह है जिसके द्वारा यह मूढ प्राणी शरीरादिकको अपना मानता है अर्थात् यह शरीर है सो मैंही हूं इसप्रकार देखता है ।। १९ ॥
वपुष्यात्मेति विज्ञानं वपुपा घटयत्यमून् ।
स्वस्मिन्नात्मेति बोधस्तु भिनत्त्यङ्गं शरीरिणाम् ॥२०॥ अर्थ-शरीरमें यह आत्मा है ऐसा ज्ञान तो जीवोंको शरीरसहि करता है और आपमें ही आप है, अर्थात् आत्मामें ही आत्मा है इसप्रकारका विज्ञान जीवोंको शरीरसे मिन्न करता है ॥ २०॥