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ज्ञानार्णवः। हैं; तथा शुद्ध है, कर्मरहित है, और अत्यंत निर्लेप है अर्थात् जिसके कोई कर्मरूपी लेप नहीं लगता, तथा ज्ञानरूपी राज्यमें अर्थात् सर्वज्ञतामें स्थित है ।। २४ ॥ तथा निर्मल दर्पणमें प्राप्त हुए प्रतिविम्बकी समान प्रभावाला है. तथा ज्योतिर्मय है अर्थात् जिसका ज्ञान प्रकाशरूप है, तथा अनन्त वीर्ययुक्त है, तथा परिपूर्ण है, जिसके कुछ भी अवयव (अंश) घटते नहीं, तथा पुरातन है, अर्थात् किसीने नया नहीं बनाया ऐसा है ॥ २५॥ तथा निर्मल सम्यक्त्वादि अष्ट गुणसहित है, निद्व है, रागादिकसे रहित है, रोगरहित है, अप्रमेय है, अर्थात् जिसका प्रमाण नहीं किया जा सकता, तथा परिज्ञात है अर्थात् भेदज्ञानी पुरुषोंके द्वारा जाना हुआ है, तथा समस्त तत्त्वोंसे व्यवस्थित है अर्थात् निश्चयरूप है ॥२६॥ तथा बाप्पभावोंसे तो ग्रहण करने योग्य नहीं है, और अन्तरंगभावोंसे क्षणमात्रमें ग्रहण करने योग्य है. इसप्रकार परमात्माका स्वरूप है. सो यह खरूप संसार अवस्थामें तो शक्तिरूप है और मुक्त अवस्थामें व्यक्तरूप है, ऐसा जानकर ध्यानगोचर करना चाहिये ॥ २७ ॥ तथा फिर भी कहते हैं,
अणोरपि च या सूक्ष्मो महानाकाशतोऽपि च ।
जगद्वन्द्यः स सिद्धात्मा निष्पन्नोऽत्यन्तनिवृतः ॥ २८ ॥ अर्थ-जो सिद्धखरूप परमाणुसे तो सूक्ष्मखरूप है, और आकाशसे भी महान् है, वह सिद्धात्मा जगतसे बंदने योग्य है, निप्पन्न है, अत्यन्त सुखमय है ॥ २८ ॥
यस्थाणुध्यानमात्रेण शीर्यन्ते जन्मजा रुजः।
नान्यथा जन्मिनां सोऽयं जगतां प्रभुरच्युतः ॥ २९ ॥ अर्थ-जिसके ध्यानमानसे जीवोंके संसारसे उत्पन्न हुए रोग नष्ट हो जाते हैं, अन्य प्रकार नष्ट नहीं होते वही यह त्रिभुवनका नाथ अविनाशी परमात्मा है ॥ २९ ॥
विजातमपि निःशेपं यदज्ञानादपार्थकम् ।
यस्मिंश्च विदिते विश्वं ज्ञातमेव न संशयः ॥ ३० ॥ अर्थ-जिस परमात्माके जाने विना अन्य समस्त जाने हुए पदार्थ भी निरर्थक हैं और . इसमें कोई संदेह नहीं कि जिसका खरूप जाननेसे समस्त विश्व जाना जाता है ॥ ३०॥
यत्वरूपापरिज्ञानानात्मतत्त्वे स्थितिर्भवेत् ।
यज्ज्ञात्वा मुनिभिः साक्षात्माप्तं तस्यैव वैभवम् ॥ ३१॥ . अर्थ-जिस परमात्माका स्वरूपके जाने विना आत्मतत्त्वमें स्थिति नहीं होती है. और जिसको जान करके मुनिगणोंने उसके ही वैभवको (परमात्माके खरूपको ) साक्षात् प्राप्त किया है ॥ ३१ ॥