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ज्ञानार्णवः। अर्थ-वह ध्यान करनेवाला मुनि अन्य सवका शरण छोड़कर उस परमात्मखरूपमें ऐसा लीन होता है कि,-ध्याता और ध्यान इन दोनोंके भेदका अभाव होकर ध्येय स्वरूपसे एकताको प्राप्त हो जाता है. भावार्थ-ध्याता ध्यान ध्येयका भेद न रहै ऐसे लीन होता है ।। ३७ ॥
सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् ।
अपृथक्त्वेन यत्रात्मा लीयते परमात्मनि ॥ ३८॥ अर्थ-जिस भावमें आत्मा अभिन्नतासे परमात्मामें लीन होता है, वह समरसीभाव आत्मा और परमात्माका समानताखरूप भाव है, सो उस परमात्मा और आत्माको एक करने स्वरूप कहा गया है. भावार्थ-इम समरसीभावसे ही आत्मा परमात्मा होता है ।। ३८॥
अनन्यशरणस्तद्धि तत्सलीनैकमानसः ।
तद्गुणस्तत्वभावात्मा स तादात्म्याच संवसन् ॥ ३९॥ अर्थ-जब अत्मा परमात्माके ध्यानमें लीन होता है तब एकीकरण कहा है, सो यह एकीकरण अनन्यशरण है. परमात्माके सिवाय अन्य आश्रय नहीं है. उसमें ही जिसका मन लीन है ऐसा तथा तद्गुण कहिये उस परमात्माके ही अनन्त ज्ञानादि गुण जिसमें हैं ऐसा है, तथा उसका शुद्ध स्वरूप आत्मा ही है, और तत्वरूपतासे वह परमात्मा ही है. इसमकार परमात्माके ध्यानसे आत्मा परमात्मा होता है ॥ ३९ ॥
कटस्य कर्ताहमिति संवन्धः स्याद्वयोईयोः।
ध्यानं ध्येयं यदात्मैव संवन्धः कीदृशस्तदा ॥ ४०॥ अर्थ-जो कोई ऐसा कहै कि मैं कट कहिये चटाई अथवा कड़े आदिका कर्ता हूं तो उस पुरुष और कटका कर्ता कर्म संबन्ध कहा जाता है, और ध्यान तथा ध्येय जव एक आत्मा ही हो तब दोनों भावोंमें क्या संबन्ध कहा जाय ? अर्थात् कुछ भी संवन्ध नहीं है. क्योंकि संवन्ध तो दो वस्तुओंमें होता है, एक ही पदार्थमें संवन्धसंबन्धीभाव नहीं होता ॥ ४०॥
शिखरिणी। यदज्ञानाजन्मी भ्रमति नियतं जन्मगहने विदित्वा यं सद्यस्त्रिदशगुरुतो याति गुरुताम् । स विज्ञेयः साक्षात्सकलभुवनानन्दनिलयः
परं ज्योतिस्त्राता परमपुरुषोऽचिन्त्यचरितः ॥ ४१॥ . अर्थ-जिस परमात्माके ज्ञान विना यह प्राणी संसाररूप गहन बनमें नियमसे भ्रमण