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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् . . स एव नियतं ध्येयः स विज्ञेयो मुमुक्षुभिः।
अनन्यशरणीभूय तद्गतेनान्तरात्मना ॥ ३२॥ ___ अर्थ-मुक्तिकी इच्छा करनेवाले मुनिजनोंको वह परमात्मा ही नियमसे ध्यान करने योग्य है. अतएव अन्य समस्त शरण छोड़कर उसमें ही अपने अन्तरात्माको प्राप्त करके जानना चाहिये ॥ ३२॥
अवाग्गोचरमव्यक्तमनन्तं शब्दवर्जितम् ।
अजं जन्मभ्रमातीतं निर्विकल्पं विचिन्तयेत् ॥ ३३ ॥ . अर्थ-जो वचनके गोचर नहीं, पुद्गलके समान इन्द्रियगोचर नहीं ऐसा अव्यक्त है। जिसका अन्त नहीं है, जो शब्दसे वर्जित है अर्थात् जिसके शब्द नहीं, जिसके जन्म नहीं ऐसा अन है, तथा भवभ्रमणसे रहित है, ऐसे परमात्माको जिसप्रकार निर्विकल्प हो, उस प्रकार ही चितवन करै ॥ ३३ ॥
यद्वोधानन्तभागेऽपि द्रव्यपर्यायसंभृतम् ।
लोकालोकं स्थितिं धत्ते स स्याल्लोकनयीगुरुः ॥ ३४ ॥ अर्थ-जिस परमात्माके ज्ञानके अनन्तवें भागमें द्रव्य पर्यायोंसे भरा हुआ यह लोक स्थित है, वही परमात्मा तीन लोकका गुरु है. भावार्थ-त्रिकालवर्ती अनन्त द्रव्यपर्यायोंसहित यह लोकालोक जिस ज्ञानमें एक कालपरमाणुके समान प्रतिभासता है, ऐसा केवलज्ञान जिस परमात्माके है वही तीन लोकका खामी है ॥ ३४ ॥
तत्वरूपाहितखान्तस्तद्गणग्रामरक्षितः।
यो जयत्यात्मनात्मानं तमिस्तद्रूपसिद्धये ॥ ३५ ॥ अर्थ-ध्यानी मुनि उस परमात्माके खरूपमें मन लगाकर उसके ही गुणग्रामोंसे रंजायमान हो उसमें ही अपने आत्माको आपहीसे उस खरूपकी सिद्धिके लिये जोड़ता है अर्थात् तल्लीन होता है ॥ ३५॥
इत्यजत्रं स्मरन्योगी तत्स्वरूपावलम्बितः। ' तन्मयत्वमवासोति ग्राहग्राहकवर्जितम् ॥ ३६॥ .. अर्थ-इसप्रकार निरन्तर सरण करता हुआ योगी (मुनि) उस परमात्माके वरूपके अवलंबनसे युक्त होकर उसके तन्मयत्वको प्राप्त होता है. कैसा होता है कि,—यह परमामाका रूप है, सो तो मेरे. ग्रहण करने योग्य है और मैं इसका ग्रहण करनेवाला हूं ऐसे ग्राह्यग्राहकमावसे वर्जित (रहित ) होता है, अर्थात् द्वैतभाव नहीं रहता ॥ ३६ ॥ ....अनन्यशरणीभूय स तमिल्लीयते तथा।
ध्यातृध्यानोभयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ॥ ३७॥ . .