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ज्ञानार्णवः। इस प्रकार ध्यान करनेकी प्रतिज्ञाका वर्णन किया. अब ध्येय वस्तुका वर्णन करते हैं,
मार्दूलविक्रीटिनम् । ध्येयं वस्तु वदन्ति निर्मलधियस्तचेतनाचेतनम्
स्थित्युत्पत्तिविनाशलान्छनयुतं मृर्तेतरं च क्रमात् । . शुध्यानविशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वरः
सर्वज्ञः सकलः शिवः स भगवान्सिद्वः परो निष्कलः ॥१७॥ अर्थ-निर्मलबुद्धि पुरुष ध्यान करने योग्य वतुको ध्येय कहते हैं. अवतु ध्यान करने योग्य नहीं हैं। वह ध्येय वतु चेतन अचेतन दो प्रकारकी है. चेतन तो जीव है और अचेतन धर्मादिक पांचद्रव्य है. ये सब द्रव्य (वस्तु) स्थिति, उत्पत्ति और विनाश लक्षणसे युक्त हैं. सर्वथा नित्य वा सर्वथा अनित्य नहीं हैं अर्थात् उत्पादव्ययधौव्यसहित है. तथा मूर्तीक अमूर्तीक भी हैं, पुद्गल मूर्तीक हैं, जीवादिक अमूर्तीक है. चतन्य ध्येय एक तो शुद्ध ध्यानसे नष्ट हुना है कर्मरूप आवरण जिसका ऐसा मुक्तिका वर सर्वज्ञ देव सकल अर्थात् देहसहित समन्त कल्याणके पूरक अरहंत भगवान् हैं, और पर कहियें दूसरे निष्कल अर्थात् शरीररहित सिद्ध भगवान् हैं ॥ १७ ॥
अमी जीवादयो भावाश्विदचिल्लालाञ्छिताः। - तत्वल्पाविरोधेन ध्येया धर्म मनीपिभिः ।। १८ ॥
अर्थ-ये जीवादिक षट् द्रव्य चेतन अचेतन लक्षणसे लक्षित हैं सो धर्मध्यानमें बुद्धिमान् पुरुषोंको इनके वरूपका अविरोध करके यथार्थ वरूपको ध्यान करना चाहिये ॥ १८ ॥
ध्याने छपरते धीमान् मनः कुर्यात्समाहितम् । .
निवेदपदमापन्नं मग्नं वा करुणाम्बुधौ ।। १९ ।। अर्थ-ध्यानके पूर्ण होनेपर धीमान् पुरुष मनको सावधानरूप वैराग्यपदको प्राप्त फरै अथवा करणारूपी समुद्र मन करे ॥ १९ ॥
अथ लोकत्रयीनाथममृत परमेश्वरम् ।
ध्यातुं प्रक्रमते साक्षात्परमात्मानमव्ययम् ॥ २० ॥ अर्थ-अथवा तीन लोकके नाथ अमूर्तीक परमेश्वर परमात्मा अविनाशीका ही साक्षात् ध्यान करनेका प्रारंभ करें ॥ २० ॥
त्रिकालविपयं साक्षाच्छक्तिव्यक्तिविवक्षया।
सामान्येन नयेनैक परमात्मानमामनेत् ॥ २१ ॥ १, 'लक्षणयुतं' इत्यपि पाठः।