________________
३१०
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अहं न नारको नाम न तिर्यग्ग्रापि मानुषः । न देवः किन्तु सिद्धात्मा सर्वोऽयं कर्मविक्रमः ॥ १२ ॥
अर्थ-यदि शुद्ध निश्चयन की दृष्टिसे देखता हूं तब न तो मैं नारकी हूं, न तिथैच हूं, न मनुष्य वा देव ही हूं किन्तु सिद्धखरूप हूं. ये नारकादिक अवस्थायें हैं सो सब कर्मका विक्रम (पराक्रम) है इसप्रकार भावना करै ॥ १२ ॥
अनन्तवीर्यविज्ञानहगानन्दात्मकोऽप्यहम् ।
किं न प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्रुमम् ॥ १३ ॥
अर्थ - तत्पश्चात् इसप्रकार भावना करै कि मैं अनन्तवीर्य, अनंत विज्ञान, अनंत दर्शन, आनन्दखरूप भी हूं इस कारण इन अनन्त वीर्यादिकके प्रतिपक्षी शत्रु कर्म हैं वेही विपके वृक्षकी समान हैं सो उन्हें क्या अभी जडमूलसे न उखाडूं ? अवश्य ही उखाडूंगा ॥१३॥ अद्यासाद्य स्वसामर्थ्यं प्रविश्यानन्दमन्दिरम् ।
न स्वरूपाच्य विषयेऽहं बाह्यार्थेषु गतस्पृहः ॥ १४ ॥
होता है
अर्थ - फिर इसप्रकार भावना करै कि- मैं अपने सामर्थ्यको इसी समय प्राप्त होकर आनन्दमन्दिरमें प्रवेश करके अपने खरूपसे कदापि च्युत नहीं होऊंगा क्यों कि बाह्य पदार्थोंमेंसे नष्ट होगई है वांछा जिसके ऐसा होकर जब खरूपमें स्थिर तब आनन्दरूप होनेसे अन्यकी वांछा नहीं रहती. फिर उस खरूपसे क्यों डिगै याद्यैव विनिश्चेयं खखरूपं हि वस्तुतः । छित्वाप्यनादिसंभूतामविद्यावैरिवागुराम् ॥ १५ ॥
॥ १४ ॥
अर्थ- -- तथा अनादिसे उत्पन्न हुई अज्ञानतारूपी (कर्मरूपी) वैरीकी फांसीको छिन्न करके इसी समय ही वास्तविक अपने खरूपको निश्चय करना चाहिये ॥ १५ ॥
..
इसप्रकार ध्यानका उद्यम करनेवाला अपने पराक्रमको सँभारकर प्रतिज्ञा करता है, सो कहते हैं—
उपजातिः ।
इति प्रतिज्ञां प्रतिपद्य धीरः समस्तरागादिकलङ्कमुक्तः । आलम्बते धर्म्यमचञ्चलात्मा शुक्लं च यद्यस्ति बलं विशालं ॥ १६ ॥ अर्थ - इसप्रकार पूर्वोक्त रीतिसे प्रतिज्ञाको अंगीकार करके धीर वीर चञ्चलतारहित पुरुष समस्त रागादिक रूप कलंकसे रहित होकर धर्मध्यानका आलम्बन करता है. और यदि उसकी सामर्थ्य उत्तम हो अर्थात शुक्लध्यानके योग्य हो तो शुक्लध्यानका अवलम्बन करता है ॥ १६ ॥