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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अथ रांगज्वरो जीणों मोहनिद्राद्य निर्गता । ततः कर्मरिपुं हन्मि ध्याननिस्त्रिंशधारया ॥ ३ ॥
..अर्थ - फिर ऐसे विचारै कि इससमय मेरे रागरूपी ज्वर तो जीर्ण होगया और. मोहरूपी, निद्रा निकल गई है इसकारण ध्यानरूपी खड्गकी धारासे कर्मरूपी चैरीको. भारता हूं ॥ ३ ॥
आत्मानमेव पश्यामि निर्धूयाज्ञानजं तमः ।
लोषयामि तथात्युग्रं कर्मेन्धनसमुत्करम् ॥ ४ ॥
अर्थ — तथा अज्ञानसे उत्पन्न हुए अन्धकारकों दूर करके आत्माहीको अवलोकन करूं तथा अति तीव्र कर्मरूपी इंधनके समूहको दग्ध करता हूं ॥ ४ ॥ प्रबलध्यान वज्रेण दुरितद्रुमसंक्षयम् ।
तथा कुर्मो यथा दत्ते न पुनर्भवसंभवम् ॥ ५ ॥
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अर्थ
- तथा प्रबलध्यानरूपी वज्रसे पापरूप वृक्षोंका क्षय (नाश) ऐसा करूं कि जिससे फिर संसार में उत्पन्न होने रूप फल न दे ॥ ५ ॥
जन्मज्वरसमुद्भूतमहामूर्च्छान्धचक्षुषा ।
स्वविज्ञानोद्भवः साक्षान्मोक्षमार्गो न वीक्षितः ॥ ६ ॥
अर्थ - फिर ऐसा विचारै कि संसाररूपी ज्वरसे उत्पन्न हुई मूर्च्छासे अंध होगये हैं नेत्र जिसके ऐसा जो मैं उसने अपने भेदविज्ञान से उत्पन्न हुए साक्षात् मोक्षमार्गको नहीं देखा ॥ ६ ॥
मयात्मापि न विज्ञातो विश्वलोकैकलोचनः । अविद्याविषमग्राहृदन्तचर्वितचेतसा ॥ ७ ॥
अर्थ - अहो मेरा आत्मा समस्त लोकको देखनेके लिये एक अद्वितीय नेत्र है सो ऐसेको भी अविद्या (मिथ्याज्ञान) रूपी ग्राहके दाँतोंसे चर्वित किया है चित्त जिसका ऐसा होकर मैंने नहीं जाना ॥ ७ ॥
फिर इसप्रकार विचार कि—
परमात्मा परंज्योतिर्जगज्येष्ठोऽपि वञ्चितः । आपांतमान्नरम्यैस्तैर्विषयैरन्तनीरसैः ॥ ८ ॥
अर्थ - मेरा आत्मा परमात्मा है, परमज्योतिप्रकाशस्वरूप है, जगतमें ज्येष्ठ है, महान् है तौ भी मैं वर्त्तमान देखनेमात्र रमणीक और अन्तमें नीरस ऐसे इन्द्रियोंके विषयोंसे . ठगाया गया हूं ॥ ८ ॥
१ 'नष्टो' इत्यपि पाठः ।