________________
ज्ञानार्णवः । अर्थ-तथा पवनके प्रचार करनेमें चतुर योगी कामरूपी विपयुक्त मनको जीतता है ( वश करता है) अर्थात् उसकी कामवासना नष्ट होजाती है, समस्त रोगोंका क्षय करके शरीरमें स्थिरता ( दृढता) करता हैं इसमें कुछ भी संदेह नहीं है ॥ १०१ ॥
जन्मशतजनितमुग्रं प्राणायामाद्विलीयते पापम् ।
नाडीयुगलस्यान्ते यतेर्जिताक्षस्य वीरस्य ॥ १०२॥ अर्थ-इस पवनके साधनरूप प्राणायामसे जीती हैं इन्द्रियें जिसने ऐसे धीर वीर यतिके सैंकड़ों जन्मोंके संचित किये तीव्र पाप दो घड़ीके भीतर भीतर लय होजाते हैं ।
यहां आशय ऐसा है कि प्राणायामसे जगतके शुभाशुभ व भूतभविष्यत जाने जाते हैं तथा परके शरीरमें प्रवेश करनेकी सामर्थ्य होती है सो ये तो लौकिक प्रयोजन है इनमें कुछ परमार्थ नहीं है और मनको वशीभूत करनेसे विषयवासना नष्ट हो जाती है और अपने निजखरूपमें ध्यान करके लय होनेसे अनेक जन्मके बांधे हुए कर्मोंका नाश करके मुक्तिको प्राप्त होना पारमार्थिक फल है. इस कारण योगीश्वरोंको करना योग्य है। तथा यह पवनके अभ्याससे पृथिवी आदि मंडलोंका (तत्त्वोंका ) नासिकाके द्वारा पवन निकले उसके द्वारा निश्चय करना कहा और उन पृथिवी आदि तत्वोंका वर्ण, आकार आदिका वरूप कहा सो यह कल्पना है. निमित्तज्ञानके शास्त्रों में वर्णन है कि शरीर पृथिवी जल अग्नि और वातमयी है, इसमें पवन सर्वत्र विचरता है. इस पृथिवी आदि तत्त्वोंकी कल्पना करके निमित्तज्ञान सिद्ध किया है । और पूरक कुम्भक रेचक करनेके अभ्याससे इस पवनको अपने आधीन करके पीछे इसको नाडीकी शुद्धताके अभ्याससे नासिकासे बाहर निकालै वा प्रवेश करावै तब नाड़ी शुद्ध होनेपर फिर पवन बाहर निकले उसकी रीति पृथिवी आदिमंडलस्वरूप जैसा वर्णन है वैसी ही पहिचान और जब उसके निमित्तसे जगतके भूत भविष्यत शुभाशुभका ज्ञान होता है तब या तो अपना जाने अथवा लोक प्रश्न करै तो उसको कहै यह लौकिक प्रयोजन है और अन्यमतावलम्बियोंने भी यह कल्पना की है परन्तु उनके यहां वस्तुका खरूप यथार्थ नहीं सधता इस कारण दैवयोगसे किंचिन्मात्र लौकिक प्रयोजन सधै तो सध सक्ता अथवा नहीं भी सघता इसका कुछ नियम नहीं है ॥ १०२ ॥ यहां इस प्राणायामके साधनेकी कठिनता दिखानेके लिये उक्तं च श्लोक है,
जलविन्दु कुशाग्रेण मासे मासे तु यः पिबेत् । संवत्सरशतं सायं प्राणायामश्च तत्समः ॥१॥
१'धीरस्य इत्यपि पाठः।