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ज्ञानार्णवः। अर्थ-यह पवन है सो एक नाडीमें नालीद्वयसा? कहिने अढ़ाई घडीतक रहता है तत्पश्चात् उसे छोड़ अन्य नाडीमें रहता है यह पवनके ठहरनेके कालका परिमाण है।।८९||
. पोडशप्रमितः कैश्चिनिर्णीतो वायुसंक्रमः। ___ अहोरात्रमिते काले योनाड्योर्यथा क्रमम् ॥९॥
अर्थ-किन्ही २ आचार्योंने दोनों नाडियोंमें एक अहोरात्र परिणाम कालमें पवनका संक्रम (पलटना) क्रमसे १६ बार होना निर्णय किया है ।। ९० ॥
पट्शतान्यधिकान्याहुः सहस्राण्येकविंशतिम् ।
अहोरात्रे नरि स्वस्थ प्राणवायोर्गमागमौ ।। ९१ ।। अर्थ-वस्थ मनुष्यके शरीरमें प्राणवायु श्वासोच्छ्वासका गमनागमन एक दिन और रात्रिमें इकईस हजार ६ सौ बार होता है ॥ ९१ ॥
संक्रान्तिमपि नो वेत्ति यः समीरस्य मुग्धधीः।
स तत्त्वनिर्णयं कर्तुं प्रवृत्तः किं न लज्जते ॥ १२ ॥ अर्थ-जो मूर्खबुद्धि पुरुष इस पवनकी पलटनको नहिं जानता है और पवनका तत्त्व यथार्थरूप निर्णय करनेके लिये प्रवते हैं सो क्या लज्जित भी नहीं होता । भावार्थपवनकी पलटनिको जाने विना पृथिवी आदिक तत्त्वोंका यथार्थ निर्णय नहीं होता जो करना चाहता है वह मूर्ख है ॥ ९२ ॥ आगे पवनके वेध करनेका विधान कहते हैं,
अथ कौतुहलहेतोः करोति वेधं समाधिसामर्थ्यात् ।
सम्यग्विनीतपवनः शनैः शनैरकतूलेषु ॥ १३ ॥ अर्थ-इसके पश्चात् यदि कोई पवनाभ्यासी कौतूहलके लिये समाधि जो पवनके अभ्यासकी लय उसकी सामर्थ्यसे भलेप्रकार जाना है पवन जिसने ऐसा पुरुप आकके तूलमें (रूईमें) मंदमंदतासे वेध करै ।। ९३ ॥
तत्र कृतनिश्चयोऽसौ जातीवकुलादिगन्धद्रव्येषु ।
स्थिरलक्ष्यतया शश्वत्करोति वेधं वितन्द्रात्मा ।। ९४ ॥ अर्थ-फिर उस आककी रूईमें किया है वेध जिसने ऐसा योगी है सो निष्प्रमादी होकर जातीपुष्प वकुल मौलश्रीके पुप्प आदि सुगंध द्रव्योंमें वेध करता है ।। ९४ ॥
कर्पूरकुंकुमागुरुमलयजकुष्ठादिगन्धद्रव्येषु । वरुणपवनेन वेधं करोति लक्ष्ये स्थिराभ्यासः ॥ ९५ ॥
१'कृताभ्यासः' इत्यपि पाठः।