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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
शरदिन्दुधामधवलं गगनतलान्मन्दमन्दमवतीर्णम् । क्षरदमृतमिव सुधांशोः पूरयति यथा पुनः पुरतः ॥ ८४ ॥
अर्थ - तत्पश्चात् वही वर्ण शरदके चन्द्रमाकी कान्तिके समान धवल आकाशतलसे मंद मंद उतरताहुआ चन्द्रमाके मार्गसे अर्थात् वामखरसे जैसे अमृत झरै तैसे फिर भी नाभिकमलमें पूरण करै अर्थात् आकाशसे उतारकर नाभिकमलमें धारण करै ॥ ८४ ॥ तत्पश्चात् क्या करै सो कहते हैं, -
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आनीय नाभिकमलं निवेश्य तस्मिन्पुनः पुनश्चैव । अनलसमनसा कार्य प्रवेश निःसरणमनवरतम् ॥ ८५ ॥
अर्थ - नाभि कमल में लानेके पश्चात् उस नाभिकमलमें ही स्थापन करके उसमें ही आलस्यरहित मनसे प्रवेश निःसरण निरंतर वारंवार करना इस कार्यके करनेमें मनमें प्रमाद न लाना सावधानी रखना ॥ ८५ ॥
तत्पश्चात् क्या करना सो कहते हैं,
अथ नाभिपुण्डरीकाच्छन्नैः शनैर्हृदयकमलनालेन । निःसारयति समीरं पुनः प्रवेशयति सोद्योगम् ॥ ८६ ॥ अर्थ–तत्पश्चात् नाभिकमलसे हृदयरूप कमलकी नालसे धीरे धीरे पवनको उद्यमसहित निकाले और प्रवेश करावै ॥ ८६ ॥
नाडीशुद्धिं कुरुते दहनपुरं दिनकरस्य मार्गेण । निष्क्रामद्विशदिंदोः पुरमितरेणेति केऽप्याहुः ॥ ८७ ॥
अर्थ- कोई कोई आचार्य इस प्रकार कहते हैं कि — अग्निमंडलकी पवन है सो सूर्य मार्ग ( दहने खरसे) निकलती और वरुणमंडल संवन्धी पवन चन्द्रमाके मार्गसे (वायें खरसे प्रवेश करती नाडीकी शुद्धताको करती है ॥ ८७ ॥
इति नाडिकाविशुद्धिपरिकलिताभ्यासकौशलो योगी । आत्मेच्छयैव घटयति पुटयोः पवनं क्षणार्डेन ॥ ८८ ॥
अर्थ - पूर्वोक्तप्रकारसे नाडीकी विशुद्धतामें भलेप्रकार अभ्यास करनेमें प्रवीण योगी पवनको नासिका के छिद्रोंमें अपनी इच्छासे ही आधे क्षणमात्रमें बना सक्ते हैं. नाडीमें अभ्यास करनेसे पवनके प्रवेश निःसरण करनेमें योगी खाधीन हो जाता है अर्थात् सिद्ध हो जाता है ॥ ८८ ॥
एकस्यामयमास्ते कालं नालीयुगद्वयं सार्द्धम् ।
तामुत्सृज्यं ततोऽन्यामधितिष्ठति नालिकामनिलः ॥ ८९ ॥
१ 'निष्क्रमणमनवरतम्' इत्यपि पाठः ।