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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जीवे जीवति विश्व मृते भृतं सूरिभिः समुद्दिष्टम् ।
सुखदुःखजयपराजयलाभालाभादिमार्गोऽयम् ।। ७३ ॥ अर्थ-जो पवनके प्रकाशकालमें जीव कहा सो जीते हुये समस्त वस्तु भी जीवित कहना और पवनके निकलते हुए मृतक कहा हो तो समस्त वस्तु निर्जीव ही कहना चाहिये। तथा सुख दुख जय पराजय लाभ अलाभ आदिका भी यही मार्ग है ॥ ७३ ।।
संचरति यदा वायुस्तत्त्वात्तत्वान्तरं तदा ज्ञेयम् ।।
यत्त्यजति तद्धि रिक्तं तत्पूर्ण यत्र संक्रमति ॥ ७४ ।। अर्थ-जिस समय पवन है सो एक तत्त्वसे अन्य तत्त्वमें संचरती हो उस समय जिसको छोडे सो तो रिक्तपवन कहा जाता है और जिसमें संचरै उसको पूर्ण कहा जाता है ।। ७४ ॥
ग्रामपुरयुद्धजनपदगृहराजकुलप्रवेशनिकाशे ।
पूर्णाङ्गपादमग्रे कृत्वा व्रजतोऽस्य सिद्धिः स्यात् ॥ ७९ ॥ अर्थ-ग्राम पुर युद्ध देश घर राजमंदिरमें प्रवेश करना अथवा वहांसे निकलना तो उस समय जिस तरफका स्वर भरा हुआ हो उस तरफका पांच पहिले रखकर चले तो उसके कार्यकी सिद्धि होती है ॥ ७५ ॥
उक्तं च भार्या । अमृते प्रवहति नूनं केचित्प्रवदन्ति सूरयोऽत्यर्थम् ।
जीवन्ति विषासक्ता म्रियते च तथान्यथाभूते ॥ १ ॥ अर्थ-अमृत जो चन्द्रमाकी नाडी वाई चलती हो तो निश्चयसे विपसे आसक्त पुरुष भी जीता है और अन्य प्रकार जो सूर्यकी नाडी दहनी चलै तो मरता है इस प्रकार पूर्वाचार्योंने अधिकतासे कहा है ॥ १ ॥ . यस्मिन्नसति म्रियते जीवति सति भवति चेतनाकलितः।
जीवस्तदेव तत्त्वं विरला जानन्ति तत्वविदः ।। ७६ ॥ अर्थ-जीव है सो जिस पवनके न होते तो मर और जिस पवनके होते हुए जीवै चेतना सहित रहै ऐसा तत्त्व कोई विरले ही तत्त्वज्ञानी जानते हैं ॥ ७६ ॥
सुखदुःखजयपराजयजीवितमरणानि विद्म इति केचित् ।
वायुप्रपञ्चरचनामवेदिनां कथमयं मानः ।। ७७ ।। अर्थ-कोई पुरुष इस प्रकार कहते हैं कि हम सुखदुःख जयपराजय जीवित मरण इनको जानते हैं परन्तु ऐसा अभिमान पवनके प्रपंच ( विस्तारकी ) रचनाको नहीं जानते उनको कैसे हो सकता है। भावार्थ-पवनका प्रचार जाने विना अभिमान करना वृथा है ॥ ७७ ॥