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ज्ञानार्णवः। कुर्वीत पूरके सत्याकृष्टिं कुम्भके तथा स्तम्भम् ।
उच्चाटनं च योगी रेचकविज्ञानसामर्थ्यात् ॥ ७८॥ अर्थ-पवनको साधनेवाला योगी है सो पूरकके होते तो आकर्षण करता है और कुम्भकके होते स्तंभन करता है और रेचकके विज्ञानकी सामर्थ्यसे उच्चाटन करता है ।। ७८ ॥
इमखिलं श्वसनभवं सामर्थ्य स्यान्मुनेधुवं तस्य।
यो नाडिका विशुद्धिं सम्यक् कर्तुं विजानाति ॥ ७९ ॥ अर्थ-यह सब पवनसे उत्पन्न हुआ सामर्थ्य है सो उस मुनिके ही होता है कि जो नाड़िका कहिये पवनकी विशुद्धताके प्रचारका चलना नासिकाके द्वारसे निकलने प्रवेश करने आदिको भले प्रकार विशुद्ध करनेके लिये विशेषकर जानता है ॥ ७९ ॥ यहां नाड़ीकी सामर्थ्य कही, अब नाडिकाकी शुद्धताका विधान कहते हैं,। यद्यपि समीरचारश्चपलतरो योगिभिः सुदुर्लक्ष्यः ।
जानाति विगततन्द्रस्तथापि नाड्यां कृताभ्यासः ॥ ८०॥ . अर्थ-यद्यपि पवनका प्रचार है सो अतिशय चपल है योगीश्वरोंको भी दुर्लक्ष्य है अर्थात् लखने में नहिं आता, तथापि योगी निष्प्रमाद होकर अतियनसे नाडीमें अभ्यास करनेसे इसके प्रचारको (संचारको ) जान सक्ता है ।। ८० ॥ अब नाडीकी विशुद्धताका वर्णन करते हैं,
सकलं विन्दुसनाथं रेफाकान्तं हवर्णमनवद्यम्।
चिन्तयति नाभिकमले सुबन्धुरं कर्णिकारूढम् ॥ ८१ ॥ अर्थ-चंद्रकलासहित बिंदुसंयुक्त रेफसे व्याप्त ऐसा हकार अर्थात् हँ ऐसा अक्षर निष्पाप मनोज्ञ नाभिकमलकी कर्णिकामें आरूढ है ऐसा चितवन करै ।।८१॥ तत्पश्चात्
रेचयति ततः शीघ्र पतङ्गमार्गेण भासुराकारम् । ज्वालाकलापकलितं स्फुलिङ्गमालाकराकान्तम् ॥ ८२॥ तरलतडिदुग्रवेगं धूमशिखावर्तमहदिक्चक्रम् ।
गच्छन्तं गगनतले दुर्द्ध देवदैत्यानाम् ॥ ८३॥ अर्थ-भासुराकार देदीप्यमान ज्वालासमूहसे संयुक्त स्फुलिंगोंकी पंक्तिके किरणोंसे व्याप्त ऐसे सूर्यके मार्गसे अर्थात् दहनी नाडीसे रेचन करै अर्थात् बाहर निकालै,तत्पश्चात् वह वर्ण चंचल विजलीके वेगकी समान वेगवाला और धूमकी शिखाके आवर्चसे जिसने दिशाओंको रोका है, देव दैत्योंके द्वारा भी थामनेमें नहीं आवै ऐसे वेगसे आकाशमें गमन करता हुआ चितवन करै ।। ८२ ।। ८३ ॥