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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-जो कोई पुरुष कुशके अग्रभागसे जलका एक एक विन्दु महीने २ के अनन्तर सौ वर्षतक पीवै अन्य कुछ भी आहारादिक नहिं करै ऐसा कठिन तप करै तो उसके समान इस प्राणायामका करना कठिन है, परंतु जो योगीश्वर ध्यानके प्रभावसे इसे साधते हैं वे धन्य हैं ॥१॥ इस प्रकार ध्यानके योग्य स्थान और आसन तथा प्राणायामका वर्णन किया ।
कवित्त । आसन थान सवारि करै मुनि प्राणायाम समीरसंभार ।
पूरक कुंभक रेचक साधन नित आधीन सुतत्त्वविचार ॥ जगतरीत सव लखै शुभाशुभ अपनै हानि वृद्धि निरधार । __ मन रोकै परमातम ध्यावै तव यह सफल न आनप्रकार ॥२९॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे स्थानासनपूर्वक
प्राणायामवर्णनं नाम एकोनत्रिंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ २९॥
अथ त्रिंशं प्रकरणं लिख्यते ।
अब प्रत्याहार और धारणाका वर्णन करते हैं,
समाकृष्येन्द्रियार्थेभ्यः साक्षं चेतः प्रशान्तधीः।
यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते ॥१॥ ___ अर्थ-जो प्रशान्तबुद्धि विशुद्धतायुक्त मुनि अपनी इन्द्रिय और मनको इन्द्रियोंके विषयोंसे बैंचकर जहां जहां अपनी इच्छा हो तहां तहां धारण करै सो प्रत्याहार कहा जाता है । भावार्थ-मुनिके इन्द्रिय मन वशमें होते हैं तब मुनि जहां अपना मन लगावै वहां लग सक्ता है, उसको प्रत्याहार कहते हैं ॥ १ ॥
निःसंगः संवृतखान्तः कूर्मवत्संवृतेन्द्रियः।
यमी समत्वमापन्नो ध्यानतन्त्रे स्थिरी भवेत् ॥२॥ अर्थ-निःसंग ( परिग्रहरहित ) और संवररूप हुआ है मन जिसका और कछुयेके समान संकोचरूप हैं इन्द्रियें जिसकी ऐसा मुनि ही रागद्वेपरहित समभावको प्राप्त होकर ध्यानरूपी तंत्रमें (प्रवृत्तिमें) स्थिरखरूप होता है। भावार्थ-ऐसा होकर प्रत्याहार करै ॥२॥ मनको कहां २ लगावै सो कहते हैं
गोचरेभ्यो हृषीकाणि तेभ्यश्चित्तमनाकुलम् । पृथक्कृत्य वशी धत्ते ललाटेऽत्यन्तनिश्चलम् ॥३॥