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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-फिर जिसने लक्ष्यमें अभ्यास किया है ऐसा योगी कपूर केशर अगर चंदन कूठ (कूड़) आदि सुगन्धित द्रव्योंमें वरुण पवनसे वेध करता है ।। ९५ ॥
एतेषु लब्धलक्ष्यस्ततोऽपि सूक्ष्मेषु पत्रिकायेषु ।
वेधं करोति वायु प्रपञ्चसंयोजने चतुरः ॥ १६॥ अर्थ-इन पूर्वोक्त वस्तुओंमें वेधका लक्ष प्राप्त होनेपर योगी पवनके प्रपंचके संयोजनमें चतुर होता हुआ सूक्ष्मपक्षिकायिक जीवोंमें वेध करता है ॥ ९६ ॥
मधुकरपतङ्गपत्रिषु तथाणुज्येष्ठेषु मृगशरीरेषु ।
संचरति जातलक्ष्यस्त्वनन्यचेता वशी धीरः ॥ ९७॥ अर्थ-उत्पन्न हुआ है लक्ष्य जिसके ऐसा योगी अनन्यचित्त और जितेन्द्रिय धीरवीर एकाग्रचित्त होकर भ्रमर पतंगादि पक्षियोंमें तथा अंडज पक्षियोंमें और मृगपशुके शरीरमें संचार करता है ।। ९७ ॥
नरतुरगकरिशरीरे क्रमेण संचरति निःसरत्येव ।
पुस्तोपलरूपेषु च यदृच्छया संक्रमं कुर्यात् ॥ ९८ ॥ अर्थ-तथा इस पवनाभ्यासका करनेवाला योगी क्रमसे मनुष्य घोडे हस्तीके शरीरमें और पुस्त तथा पाषाणमय पदार्थमें अपनी इच्छानुसार संचार करता (प्रवेश करता) वा निकलता रहता है इसप्रकार नियमसे इच्छानुसार संक्रमण करै ॥ ९८॥
इति परपुरप्रवेशाभ्यासोत्थसमाधिपरमसामर्थ्यात् ।
विचरति यदृच्छयासौ मुक्त इवात्यन्तनिर्लेपः ॥ ९९ ॥ . अर्थ-इसप्रकार पूर्वोक्त रीतिसे परपुरके प्रवेश करनेके अभ्याससे उत्पन्न हुई समाधिके परमउत्कृष्ट सामर्थ्य योगी अपनी इच्छानुसार मुक्त आत्माकी समान निर्लेप होकर विचरता है ॥ ९९ ॥
तथा__ कौतुकमात्रफलोऽयं परपुरप्रवेशो महाप्रयासेन ।
सिद्ध्यति न वा कथंचिन्महतामपि कालयोगेन ॥१०॥ अर्थ-अथवा यह पुरपुरप्रवेश है सो कौतुकमात्र है फल जिसका ऐसा है, इसका पारमार्थिक फल कुछ भी नहीं है और यह जो है सो महापुरुष बड़े २ तपखियोंके भी वहुतकालमें प्रयास करनेसे सिद्ध नहीं भी होता व्यर्थ ही प्रयास होता है. अर्थात् फल तो इसमें थोड़ा है और प्रयास बहुत है ।। १०० ॥
स्मरगरलमनोविजयं समस्तरोगक्षयं वपुःस्थैर्यम् । पवनप्रचारचतुरः करोति योगी न सन्देहः ॥ १०१॥
पाता