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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है और समस्त कार्योंमें मनोगत भावको प्रकट कहता है । भावार्थ-मनमें विचारे हुए कार्योंकी सिद्धि कहता है ॥ २९ ॥
अभिमतफलनिकुरम्बं विद्यावीर्यादिभूतिसंकीर्णम् ।।
सुतयुवतिवस्तुसारं वरुणो योजयति जन्तूनाम् ॥ ३० ॥ अर्थ-वरुण पवन जीवोंके विद्यावीर्यादि विभूतिसहित तथा पुत्रस्त्रीआदिमें जो सारवस्तु मनोवांछित हों उन सबको जोड़ता है अर्थात् प्राप्त कराता है ।। ३० ॥
भयशोकदुःखपीडा-विघ्नौधपरम्परां विनाशं च ।।
व्याचष्टे देहभृतां दहनो दाहस्वभावोऽयम् ॥ ३१॥ अर्थ-यह अग्निमंडलका पवन दाहखभावरूप है यह पवन जीवोंके भय शोक दुःख पीड़ा तथा विघ्नसमूहकी परंपरा तथा विनाशादिक कार्योंको प्रगट । कहता है ॥ ३१॥
सिद्धमपि याति विलयं सेवा कृष्यादिकं समस्तमपि चैव ।
मृत्युभयकलहवैरं पवने त्रासादिकं च स्यात् ॥ ३२॥ अर्थ-तथा पवनमंडलके पवन बहनेपर सेवा कृषी आदिक समस्त कार्य सिद्ध हुये हों वे भी विलय हो जाते हैं (नष्ट होजाते ही हैं) तथा मृत्युभय कलह वैर तथा त्रासादिक होते हैं ॥ ३२ ॥ ___ यह तो सामान्य कार्योंमें शुमाशुभ कहा. अब इनके प्रवेश और निःसरणकालके विषयमें कहते हैं,
सर्व प्रवेशकाले कथयन्ति मनोगतं फलं पुंसाम् । . अहितमतिदुःखनिचितं स एव निःसरणवेलायाम् ॥ ३३ ॥ __ अर्थ-ये चारों ही पबन प्रवेशकालमें अर्थात् नासिकाके बाहरसे आकर उल्टा प्रवेश करते हैं तो पुरुषोंके मनोगत फलको कहते हैं अर्थात् मनमें विचारे सो सिद्ध होता है परन्तु ये ही चारों पवन निकलनेके समय अतिशय दुःखसे भरे अहितको प्रकाश करते हैं ॥ ३३ ॥
सर्वेऽपि प्रविशन्तो रविशशिमार्गेण वायवः सततम् ।
विद्धति परां सुखास्थां निर्गच्छन्तो विपर्यस्ताम् ॥ ३४ ॥ __ अर्थ-ये चारों ही पवन सूर्य चंद्रमाके मार्गसे अर्थात् दहिने वायें निरंतर प्रवेश करते हुये उत्कृष्ट सुखकी आस्थाको करते हैं और निकलते समय दुःखावस्थाको प्रगट करते हैं भावार्थ-प्रवेश करते शुभ हैं निकलते हुये अशुभ हैं ॥ ३४ ॥
विभवसंकीर्ण इत्यपि पाठः। २ पुंसाम् इत्यपि पाठः ।