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ज्ञानार्णवः ।
वामेन प्रविशन्तौ वरुणमहेन्द्रौ समस्त सिद्धिकरौ । इतरेण निःसरन्तौ हुतभुक्पवनी विनाशाय ॥ ३५ ॥
अर्थ - तथा वरुण और माहेन्द्र पवन ( पृथ्वीपवन ) चांई तरफसे निकलते हैं तो समतकार्यों के सिद्ध करनेवाले हैं तथा वह्निमण्डल और पवनमंडलके पवन दहिनी तरफ निकलते हुये विनाशके अर्थ हैं ॥ ३५ ॥
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अध मण्डलेषु वायोः प्रवेशनिःसरणकालमवगम्य । उपदिशति भुवनवस्तुषु विचेष्टितं सर्वथा सर्वम् ॥ ३६ ॥ अर्थ - अथवा चारों मंडलोंमें पवन के प्रवेश और निःसरणकालको निश्चय करके ध्यानी पुरुष जगत् भरमं जो पदार्थ हैं उन सबकी सर्व प्रकारकी चेष्टाओंका उपदेश करता है ॥ ३६ ॥
वामायां विचरन्तौ दहनसमीरौ तु मध्यमौ कथितौ । चन्द्रावितरस्यां तथाविधावेव निर्दिष्टौ ॥ ३७ ॥
अर्थ - अग्निमंडलका पवन और वायुमंडलका पवन बायीं तरफ से बहता हुआ मध्यम फल कहता है और वरुण तथा माहेन्द्र ये दोनो पवन दाहिनी तरफसे बहें तो मध्यम फल कहते हैं ॥ ३७ ॥
उदये वामा शस्ता सितपक्षे दक्षिणा पुनः कृष्णे ।
त्रीणि त्रीणि दिनानि तु शशिसूर्यस्योदयः श्लाघ्यः ॥ ३८ ॥ अर्थ- शुक्लपक्ष में सूर्योदय के समय नाडी बाई तरफ बहती हुई प्रशस्त है उत्तम है । कृष्णपक्ष में उदयकाल में दहनी तरफ बहती हुई नाडी श्रेष्ठ है । इसप्रकार तीन तीन दिन चन्द्रमा और सूर्यका उदय सराहा है । भावार्थ- शुक्लपक्षकी प्रतिपदा द्वितीया तृतीयांचे दिन प्रातः कालही वामखर अच्छा है फिर तीन दिन दहिना फिर तीन दिन बांयां इसी प्रकार पूर्णमापर्यत स्वरोंका तीन तीन दिन चलना शुभ है । तथा कृष्णपक्ष में प्रतिपदा द्वितीया तृतीया के दिन दहिना सर फिर तीन दिन बायां फिर तीन दिन दहिना इसीप्रकार अमावास्यापर्यन्त शुभस्वर जानने. इससे विरुद्ध खर चलने अशुभ हैं ॥ ३८ ॥ उदयचन्द्रेण हितः सूर्येणास्तं प्रशस्यते वायोः ।
अर्थ
रविणोदये तु शशिना शिवमस्तमनं सदा नृणाम् ॥ ३९ ॥ - तथा पवनका उदय चन्द्रमाके खरसे ( बांयें खरसे) शुभ है और अत सूर्यतर अर्थात् दहिने खरसे प्रशस्त कहा है और सूर्य से ( दहिनेसे ) उदय हो तो शशि कहिये बायें खरसे अम्न होना जीवको सदा कल्याणकारी (शुभ) है ॥ ३९॥ सितपक्षे व्युदये प्रतिपद्दिवसे समीक्ष्यते सम्यक् । रास्तेतरमचारी वायोर्यत्नेन विज्ञानी ॥ ४० ॥