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ज्ञानार्णवः। अर्थ-नासिकाके छिद्रको भले प्रकार भरके कुछ उप्णता लिये आठ अंगुल बाहर निकलता, खस, चपलतारहित, मंदमंद वहता, ऐसा पुरंदर कहिये इन्द्र जिसका खामी है ऐसे पृथिवीमंडलके पवनको (इन चिहोंसे) जानना ।। २४ ॥
त्वरितः शीतलोऽधस्तात्सितमक द्वादशाङ्गुला।
वरुणः पवनस्तज्जैर्वहनेनावसीयते ॥ २५ ॥ अर्थ-जो त्वरित कहिये शीघ्र वहनेवाला हो, कुछ निचाई लिये वहता हो, शीतल हो, उज्वल (शुद्धोदीप्तिल्प हो, तथा बारह अंगुल वाहर आवै ऐसे पवनको पवनके जाननेवालोंने वरुण पवन निश्चय किया है । भावार्थ-इन चिहोंसे वरुण पवनको निश्चय करना २५
तिर्यग्वहत्यविश्रान्तः पवनाख्यः पडङ्गुलः।
पवनः कृष्णवणांऽसौ उष्णः शीतश्च लक्ष्यते ॥ २६ ॥ अर्थ-जो पवन सब तरफ तिर्यक् वहता हो, विश्राम न लेकर निरन्तर वहताही रहै तथा ६ अंगुल बाहर आवै, कृष्णवर्ण हो, उप्ण हो तथा शीत भी हो ऐसा पवनमंढलसंबंधी पवन पहचाना जाता है ॥ २६ ॥
पालार्कसन्निभश्चोत्र सावर्तश्चतुरङ्गुलः।
अत्युप्णो ज्वलनाभिख्यः पवनः कीर्तितो वुधैः ॥ २७ ।। अर्थ-जो ऊगते हुए सूर्यकी समान रक्तवर्ण हो तथा ऊंचा चलता हो, आवर्ती (चक्रों)सहित फिरता हुआ चलै, चार अंगुल बाहर आव और अति उप्ण हो ऐसा अग्निमण्डलका पवन पंडितोंने कहा है ॥ २७ ॥ अब इन चार प्रकारके पवनाको कार्यविशेषमें शुभाशुभ भेद करके दिखाते हैं
आया। स्तम्भादिक महेन्द्रो वरुणः शस्तेषु सर्वकार्येषु ।
चलमलिनेषु च वायुर्वश्यादौ वहिनद्देश्यः ।। २८ ॥ अर्थ-पुरुपको लभनादि कार्य करने हों तो महेन्द्र कहिये पृथिवीमंडलका पवन शुभ है, और वरुण कहिये अपमण्डलका पवन समस्त प्रकारके कार्योंमें शुभ है, और पवनमंडलका पवन चलकार्य तथा मलिन कार्यों में श्रेष्ठ है तथा वश्य आदिकार्यों में वहिमण्डलका पवन उत्तम कहा है ॥ २८ ॥
छत्रगजतुरगचामररामाराज्यादिसकलकल्याणम् ।
माहेन्द्रो वदति फलं मनोगतं सर्वकार्येषु ।। २९ ।। अर्थ-माहेन्द्रपवन छत्र गज तुरंग चामर स्त्री राज्यादिक समस्त कल्याणोंको कहता