________________
ज्ञानार्णवः ।
२९३
स्वरमें (बांई नाडीमें) वहै तौ ग्रहकाल चन्द्रमासूर्य आदिक हैं अनिष्ट करनेमें समर्थ नहीं होते ये समस्तकल्याणकी देनेवाली दोनों नाडी होती हैं ॥ ४६ ॥
पूर्णे पूर्वस्य जयो रिक्ते त्वितरस्य कथ्यते तज्ज्ञैः । उभयोर्युद्धनिमित्ते दृतेनाशंसिते प्रश्ने ॥ ४७ ॥
अर्थ- कोई दूत आकर युद्धके निमित्त भरे मुरमं प्रश्न करै तौ (पहिले पूछनेवाले) की जीत हो और रिक्तखरमें (खाली खरमें) पूछे तो दूसरेकी जय हो और दोनों चलें तो दोनोंकी जय हो ॥ ४७ ॥
ज्ञातुर्नाम प्रथमं पश्चाद्यधातुरस्य गृह्णाति ।
दृतस्तदेष्टसिद्धिस्तद्व्यस्ते स्याद्विपर्यस्ता ॥ ४८ ॥
अर्थ- कोई प्रश्न करता दूत यदि प्रथम ही ज्ञाताका नाम लेकर तत्पश्चात् आतुरका नाम ले तो इष्टकी सिद्धि होती है और इससे विपरीत रोगीका नाम पहिले और ज्ञाताका नाम पीछे ले तो इष्टकी सिद्धि नहीं है ( विपर्यस्त है ) ॥ ४८ ॥
जयति समाक्षरनामा वामावाहस्थितेन दूतेन । विमाक्षरस्तु दक्षिणदिक्संस्थेनास्त्रसंपाते || ४९ ॥
अर्थ- दूत आकर जिसके लिये पूछे उसके नामके अक्षर सम हों (दो चार छह इत्यादि हों) और वाई नाडी बहती हुई की तरफ खड़ा होकर पूछे तो वह शस्त्रपातके होते हुए भी जीते और जिसके नामक विपमाक्षर हों अर्थात् एक तीन पांच इत्यादि हों और दाहिनी नाडी बहती हुईमें खड़ा रहकर पूलै तौ उसकी भी जीत हो इस प्रकार जय पराजय के प्रश्नका उत्तर कहै ॥ ४९ ॥
भूतादिगृहीतानां रोगार्तानां च सर्पदष्टानां ।
पूर्वोक्त एव च विधिद्रव्यो मान्त्रिकावश्यम् ॥ ५० ॥ अर्थ- जो कोई मंत्रवादी दूत आकर पृछै कि अमुक भूतादिकसे गृहीत है तथा अमुक रोगले पीडित है अथवा सर्पने काटा है तो पूर्वोक्त विधि ही जाननी. यह अवश्य है कि समअक्षरवालेका बांई नाडीके चलते हुए पूछना शुभ है और विषमाक्षरवालेका दहनी बहती हुई नाडीमें पूछना शुभ है ॥ ५० ॥
पूर्णे वरुणे प्रविशति यदि वामा जायते कचित्पुण्यैः । सिद्ध्यन्त्य. चिन्तितान्यपि कार्याण्यारभ्यमाणानि ॥ ५१ ॥
अर्थ - वरुणमंडलका पवन पूर्ण होकर प्रवेश होते हुए यदि किसी पुण्योदयसे बांई नाडी चलें तौ अनचिन्ते कार्यके प्रारंभ करनेमें भी सिद्धि होती है अर्थात् शुभ है ॥५१॥ जयजीवित लाभाद्या येऽर्थाः पूर्वं तु सूचिताः शास्त्रे ।
स्युस्ते सर्वेऽप्यफला मृत्युस्थे मरुति लोकानाम् ॥ ५२ ॥