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पपात
ज्ञानार्णवः । अब मेह वर्पनेके प्रश्नका उत्तर कहते हैं,
वर्पति भौमे मघवन्दमणेऽभिमतो मतस्तथाजस्रम् ।
दुर्दिनघनाश्च पवने वही दृष्टिः कियन्मात्रा ।। ५८॥ अर्थ-पृथिवी तत्त्वमें तो मेघ वर्पना कहै अपतत्त्वमें मनोवांछित मेह निरन्तर वरसँगा ऐसा कहै । पवनतत्त्वमें दुर्दिन होगा बादल होगा, ऐसा कहै और वह्नितत्त्वमें किंचि. न्मात्र वृष्टि होना कहें ।। ५८ ॥
सस्यानां निष्पत्तिः स्यादणे पार्थिवे च सुलाध्या ।
स्वल्पापि न चाग्नेये वाय्वाकाशे तु मध्यस्था ॥ ५९ ।। अर्थ-कोई मनुप्य धान्य निप्पत्तिका (उत्पन्न होने न होनेका) प्रश्न करै तोवरुण पवनमें और पृथिवी पवनमें तो धान्यकी उत्पत्ति अच्छी होगी ऐसा कहै और अग्निपवनमें खल्य भी न हो ऐसा कहै और वायुतत्त्वमें अथवा शून्यमें (आकाशतत्त्वम ) मध्यस्थ हो, ऐसा कहै ॥ ५९ ॥
नृपतिगुम्वन्धुवृद्धा अपरेऽप्यभिलपितसिद्धये लोकाः।
पूर्णाङ्गे कर्तव्या विदुपा वीतप्रपञ्चेन ॥ १० ॥ अर्थ-यहां वशीकरण प्रयोग है-सो राजा गुरु बन्धु वृद्धपुरुष तथा अन्य लोग भी अपने वांछितके लिये या करने हों तो पूर्णा कहिये भरे खरमें प्रपंचरहित पंडितपुरुषोंको चाहिये कि वशीकरणप्रयोग करे । भावार्थ-जिस समय भरा वर चलता हो उस समय उनसे वार्तालाप करनेस वे अपने अनुकूल प्रवर्तते हैं ॥ ६० ॥
शयनासनेपु दक्षः पूर्णाङ्गनिवेशितामु योपासु।
ह्रियते चेतस्त्वरितं नातोऽन्यदश्यविज्ञानम् ॥ ६१ ।। अर्थ-प्रवीण पुरुषांक द्वारा भरे वरमें निवेशित की हुई स्त्रियोंक चित त्वरित ही हरे जाते हैं इससे अन्य वश करनेका कोई भी विज्ञान उत्तम नहीं हैं ।। ६१॥ ..
अरिऋणिकचौरदुष्टा अपरेऽप्युपसर्गविग्रहाबाश्च ।
रिक्ताङ्के कर्तव्या जयलाभमुखार्थिभिः पुमपैः ॥ १२॥ अर्थ-तथा शत्रु, ऋणवाला चौर दुष्ट पुरुष तथा अन्य भी ऐसे लोक वश करने तथा उपसर्ग युद्ध, इत्यादिक कार्य जीतलाममुखके अर्थियोंको रीते खरमें करने चाहिये ॥ १२ ॥
रिपुशस्त्रसंप्रहारे रक्षति यः पूर्णगानभूभागम् । पलिभिरपि वैरिवगैर्न भेद्यते तस्य सामर्थ्यम् ।। ६३ ॥