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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अब इनका खरूप कहते हैं,
क्षितिबीजसमाक्रान्तं द्रुतहेमसमप्रभम् ।
स्थावज्रलाञ्छनोपेतं चतुरस्र धरापुरम् ॥ १९ ॥ अर्थ-क्षितिबीन जो पृथ्वीका बीजाक्षर उस सहित गालेहुए सुवर्णकी समान पीतरक्त प्रभा जिसकी और वज्रके चिहसंयुक्त चौकोर धरापुर है अर्थात् पृथिवीमंडल है ॥ १९ ॥
अड़चन्द्रसमाकारं वारुणाक्षरलक्षितम् ।
स्फुरत्सुधाम्वुसंसिक्तं चन्द्राभं वारुणं पुरम् ॥ २० ॥ अर्थ-आकार तो आधे चंद्रमाके समान, वारुण बीजाक्षरसे चिहित और स्फुरायमान अमृतस्वरूप जलसे सींचा हुआ ऐसा चंद्रमासरीखा शुक्लवर्ण वरुणपुर है । यह अपमंडलका खरूप कहा ॥ २० ॥
सुवृत्तं बिंदुसंकीर्ण नीलाञ्जनधनप्रभम् ।
चञ्चलं पवनोपेतं दुर्लक्ष्यं वायुमण्डलम् ।। २१ ।। अर्थ-सुवृत्त कहिये गोलाकार तथा विंदुओंसहित नीलाञ्जन घनके समान है वर्ण जिसका, तथा चंचल (बहताहुआ) पवन वीजाक्षरसहित दुर्लक्ष्य (देखनेमें न आवे) ऐसा वायुमंडल है। यह पवनमंडलका खरूप कहा ॥ २१ ॥
स्फुलिङ्गपिङ्गलं भीममूव॑ज्वालाशतार्चितम् ।
त्रिकोणं खस्तिकोपेतं तबीजं वह्निमण्डलम् ॥ २२ ॥ अर्थ-अग्निके फुलिंगा समान पिंगलवर्ण भीम रौद्ररूप अर्ध्वगमनखरूप ज्वालाके सैकड़ोंसहित त्रिकोणाकार खस्तिक (साथिये) सहित, वहिवीजसे मंडित ऐसा वहिमंडल है। यह अग्निमंडलका खरूप कहा गया ॥ २२ ॥
ततस्तेषु क्रमादायुः संचरत्यविलम्वितम् ।
स विज्ञेयो यथाकालं प्रणिधानपरैनरैः ॥ २३ ॥ अर्थ-उपयुक्त चार मंडलोंका खरूप निश्चय किया उसके अनन्तर लगता ही यह जानो कि उन मंडलोंमें अनुक्रमसे निरन्तर पवन संचरै है उसे यथाकाल अर्थात् जैसा काल है उसही कालमें प्रणिधान कहिये चितवनमें तत्पर ऐसे पुरुषोंको जानना चाहिये ॥ २३ ॥ अब इनमें पवन संचरता है उसके जाननेके लिये चिह कहते हैं,
घोणाविवरमापूर्य किञ्चिदुष्णं पुरन्दरः।
वहत्यष्टाङ्गुलः खस्था पीतवर्णः शनैः शनैः ॥२४॥ १'क्षरत्सुधाम्वुसंसिकं' इत्यपि पाठः.