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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् इनको जानकर और कालका प्रमाण आयुर्बल शुभ तथा अशुभ फलके उदयका विचार करै ॥ ८॥
अत्राभ्यासं प्रयत्नेन प्रास्ततन्द्रः प्रतिक्षणम् ।
कुर्वन् योगी विजानाति यन्त्रनाथस्य चेष्टितम् ॥९॥ अर्थ-इस पवनका अभ्यास बड़े यत्नसे निष्प्रमादी होकर निरंतर, करता हुआ योगी जीवकी समस्त चेष्टाओंको जानता है ॥ ९ ॥
___ उक्तं च श्लोकद्वयम् । समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः। नाभिमध्ये स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुम्भकः ॥१॥ यत्कोष्ठादतियत्नेन नासाब्रह्मपुरातनः।।
बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः ॥२॥ अर्थ-जिससमय पवनको तालुरन्ध्रसे ले बैंचकर प्राणको धारण करै, शरीर में पूर्णतया थांमै सो तो पूरक है और नाभिके मध्य स्थिर करके रोकै सो कुंभक है तथा जो पवनको कोठेसे बड़े यनसे बाहर प्रक्षेपण करे सो रेचक है. इस प्रकार नासिकाब्रह्मके जाननेवाले पुरातन पुरुषोंने कहा है ॥ १-२॥
शनैःशनैर्मनोऽजस्रं वितन्द्रः सह वायुना।
प्रवेश्य हृदयाम्भोजकर्णिकायां नियन्त्रयेत् ॥१०॥ अर्थ-इस पवनका अभ्यास करनेवाला योगी निष्प्रमादी होकर बड़े यत्नसे अपने . मनको वायुके साथ मंदमंद निरन्तर हृदयकमलकी कर्णिकामें प्रवेश कराकर वहां ही नियन्त्रण करें (थांमै), उस जगहसे चलने न दे ॥ १० ॥
विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयाशा निवर्तते ।
अन्तः स्फुरति विज्ञानं तन्न चित्ते स्थिरीकृते ॥११॥ अर्थ—उस हृदयकमलकी कर्णिकामें पवनके साथ चित्तको स्थिर करनेपर मनमें विकल्प नहीं उठते और विषयोंकी आशा भी नष्ट होजाती है तथा अन्तरंगमें विशेष ज्ञानका प्रकाश होता है, इस पवनके साधनसे मनको वश करना ही फल है ॥ ११ ॥
एवं भावयतः खान्ते यात्यविद्या क्षयं क्षणात् ।
विमदीस्युस्तथाक्षाणि कषायरिपुभिः समम् ॥ १२॥ अर्थ-इसप्रकार मनको वश करके भावना करते हुए पुरुषके अविद्या तौ क्षणमात्रमे क्षय होजाती है और इन्द्रिय मदरहित होजाती हैं. उनके साथ ही साथ कषाय भी क्षीण होजाते हैं। इस पवनको साधन करके मनको वश करनेका प्रयोजन है ॥ १२॥