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ज्ञानार्णवः ।
२८५ वासोच्छास द्वारा प्रगट जाना जाता है इस पवनके कारण मन भी चंचल रहता है. जब पवन वशीभूत होजाता है तब मन भी वशमें होजाता है ॥ २॥ अब इस पवनका स्तंभन कैसे होता है सोही कहते हैं।
विधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः ।
पूरकः कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ॥ ३॥ __अर्थ-पूर्वाचार्योने इस पवनके स्तंभनखरूप प्राणायामको लक्षणमेदसे तीन प्रकारका कहा है, एफका नाम पूरक है दूसरेका कुम्भक और तीसरेका रेचक है ॥ ३ ॥ अब इन तीनों का स्वरूप कहते हैं,
बादशान्तात्समाकृष्य यः समीरः प्रपूर्यते।
स पूरक इति ज्ञेयो वायुविज्ञानकोविदः ॥ ४ ॥ अर्थ-द्वादशान्त कहिये तालवेके छिद्रसे अथवा द्वादश अंगुलपर्यंतसे बैंचकर पवनको अपनी इच्छानुसार अपने शरीरंगें पूरण करै उसको वायुविज्ञानी पंडितोंने पूरक पवन कहा है ॥ ४ ॥
निरुणद्वि स्थिरीकृत्य श्वसनं नाभिपङ्कजे ।
कुम्भवनिर्भरः सोऽयं कुम्भकः परिकीर्तितः ॥५॥ अर्थ-तथा उस पूरक पवनको स्थिर करके नाभिकमलमें जैसे घड़ेको भरै तैसें रोकै (बाम) नाभिसे अन्य जगह चलने न दे सो कुंभक कहा है ॥५॥
निःसार्यतेऽतियनेन यत्कोष्ठाच्छसनं शनैः।
स रेचक इति प्राजः प्रणीतः पवनागमे ॥६॥ अर्थ-जो अपने कोठसे पवनको अतियनसे मंदमंद बाहर निकालै उसको पवनाभ्यासके शास्त्रों में विद्वानोंने रेचक ऐसा नाम कहा है ॥ ६ ॥
नाभिस्कन्धाद्रिनिष्क्रान्तं हृत्पद्मोदरमध्यगम् ।
दादशान्ते सुविश्रान्तं तज्ज्ञेयं परमेश्वरम् ॥७॥ अर्थ-जो नाभिस्कन्धसे निकाला हुआ तथा हृदयकमलमेंसे होकर द्वादशान्त (तालरंध्र)में विश्रान्त हुआ (ठहरा हुआ) पवन है उसे परमेश्वर जानो क्योंकि यह पवनका सामी है ॥ ७॥
तस्य चारं गतिं वुध्वा संस्थां चैवात्मनः सदा ।
चिन्तयेत्कालमायुश्च शुभाशुभफलोदयम् ॥ ८॥ अर्थ-पवन ईश्वर जो तालुरन्ध्रम विश्रान्त हुआ उसका चार कहिये चलना अर्थात् अमण और गति कहिये मन तथा आत्माकी (जीवकी) संस्था अर्थात् देहमें सदा रहना