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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अर्थ-संयमी मुनि संसारकी पीड़ाको शान्त करनेके लिये आगे लिखे स्थानोंमें निरंतर सावधान होकर रहे – समुद्र के किनारेपर - वनमें, पर्वतके शिखरपर, नदीके किनारे, कमलवनमें, प्राकार (कोट), शालवृक्षोंके समूहमें, नदियोंका जहां संगम हुआ हो, जलके मध्य जो द्वीप हो उसमें, प्रसन्न (उज्वल ) वृक्षके कोटरमें, पुराने वनमें, श्मशान में, पर्वतकी गुफामें, जीवरहित स्थानमें, सिद्धकूट तथा कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालयोंमें जहां कि महाऋद्धिके धारक महाधीर वीर योगीश्वर सिद्धिकी वांछा करते हैं, मनको प्रीति देनेवाले, प्रशंसनीय, तथा जहांपर शंका कोलाहलशब्द न हो ऐसे स्थानमें, तथा समस्त ऋतुओं में सुखके देनेवाले रमणीक सर्व उपद्रवरहित स्थानमें, तथा शून्यघर तथा शूने ग्राम पृथिवीके नीचे ऊँचे प्रदेशमें, तथा कदलीगृहमें (केलोंके कुंजों में) तथा नगरकी उपवनकी (बागकी) वेदीके अंतमें तथा वेदीपरके मंडपमें वा चैत्यवृक्षके समीप, तथा वर्षा आतप हिम शीतादिक तथा प्रचंड पवनादिसे 'वर्जित स्थानमें निरंतर तिष्ठै ॥ २-३-४-५-६-७ ॥
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यत्र रागादयो दोषा अजस्रं यान्ति लाघवम् । तत्रैव वसतिः साध्वी ध्यानकाले विशेषतः ॥ ८ ॥
अर्थ-जिस स्थान में रागादिक दोष निरन्तर लघुताको प्राप्त हो उसही स्थानमें मुनिको बसना चाहिये तथा ध्यानके कालमें तो अवश्य ही योग्य स्थानको ग्रहण करना चाहिये ॥ ८ ॥
अब आसनका विधान कहते हैं, -
दारुप शिलापट्टे भूमौ वा सिकतास्थले ।
समाधिसिद्धये धीरो विदध्यात्सुस्थिरासनम् ॥ ९ ॥
अर्थ - वीर वीर पुरुष समाधिकी सिद्धिके लिये काष्ठके तखतेपर तथा शिलापर अथवा भूमिपर बा बालूरेंतके स्थान में भले प्रकार स्थिर आसन करै ॥ ९ ॥
पर्यङ्कमपर्यङ्कं वज्रं वीरासनं तथा ।
सुखारविन्दपूर्वे च कायोत्सर्गश्च सम्मतः ॥ १० ॥
अर्थ ——पर्यक आसन, अर्द्धपर्यंक- आसन, वज्रासन, चीरासन, सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्ग ये ध्यानके योग्य आसन माने गये हैं ॥ १०॥ .
येन येन सुखासीना विध्युर्निश्चलं मनः ।
तत्तदेव विधेयं स्यान्मुनिभिर्बन्धुरासनम् ॥ ११ ॥
अर्थ - जिस जिस आसन से सुखरूप उपविष्ट मुनि अपने मनको निश्वल कर सकें वही सुंदर आसन मुनियोंको स्वीकार करना चाहिये ॥ ११ ॥
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