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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् . . . एताभिरनिशं योगी क्रीडन्नत्यन्तनिर्भरम् ।. . ... सुखमात्मोत्थमत्यक्षमिहैवास्कन्दति ध्रुवम् ॥ १६॥ .
अर्थ-इन भावनाओंमें रमता हुआ योगी अत्यंत सातिशय आत्मासे उत्पम हुए अतीन्द्रिय सुखको इसी लोकमें निश्चय करके प्राप्त होता है ॥ १६ ॥ .
भावनाखासु संलीनः करोत्यध्यात्मनिश्चयम् ।
अवगम्य जगद्वृत्तं विषयेषु न मुह्यति ।। १७ ॥ . . अर्थ-तथा इन भावनाओंमें लीन हुआ मुनि जगतके वृत्तांतको जानकर अध्यात्मका निश्चय करता है, जगतके प्रवर्तनमें तथा इन्द्रियोंके विपयोंमें मोहको प्राप्त नहिं होता अर्थात् खकीय खरूपके सम्मुख रहता है ॥ १७ ॥
योगनिद्रा स्थितिं धत्ते मोहनिद्रापसर्पति ।
आसु सम्यक्प्रणीतासु स्यान्मुनेस्तत्वनिश्चयः॥१८॥ अर्थ-इन भावनाओंको मले प्रकार गोचरीभूत ( अभ्यस्त ) करनेपर मुनिके मोहनिद्रा तो नष्ट हो जाती हे और योगकी (ध्यानकी) निद्रा स्थितिको धारण करती है और उसी मुनिके तत्त्वोंका निश्चय होता है ।। १८ ॥
आभियदानिशं विश्वं भावयत्यखिलं वशी,
तदौदासीन्यमापन्नश्वरत्यत्रैव मुक्तवत् ॥ १९ ॥ अर्थ-जिस समय मुनि इन भावनाओंसे वशी होकर समस्त जगतको भावता है तब वह मुनि उदासीनताको प्राप्त होकर इसी लोकमें मुक्तके समान प्रवर्तता है अर्थात् मुक्तिकेसे सुखानुभवको प्राप्त होता है ॥ १९ ॥ ___ इस प्रकार शुभ ध्यानकी सामग्री स्वरूप चार भावनाओंका वर्णन किया, इनको भावनेवालेके ध्यानकी सिद्धि होती है । अब ध्यानके योग्य स्थान तथा उसके अयोग्य खानका वर्णन करते हैं,- .
रागादिवागुराजालं निकृत्याचिन्त्यविक्रमः। ' : स्थानमाश्रयते धन्यो विविक्तं ध्यानसिद्धये ॥२०॥.
अर्थ-जो मुनि धन्य है (महाभाग्य है ) वह रागादिकरूप फांसीके बालको काटकर अचिन्त्य पराक्रमवाला होकर ध्यानकी सिद्धिके लिये निर्जन (एकान्त) स्थानको आश्रय करता है क्योंकि एकान्त स्थानमें रहे विना ध्यानकी सिद्धि नहीं होती ॥ २० ॥
. .. कानिचित्तत्र शस्यन्ते दूष्यन्ते कानिचित्पुनः। ' . : ध्यानाध्ययनसिद्ध्यर्थं स्थानानि मुनिसत्तमैः ॥ २१ ॥ . अर्थ-ध्यानकी और शास्त्राध्ययनकी सिद्धिके लिये आचार्योंने कई स्थान सराहे हैं और कई स्थान दूषे भी हैं क्योंकि-॥ २१ ॥ . . . . . .