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ज्ञानार्णवः । कुर्वन्ति यतयोऽप्यत्र क्रुद्धास्तत्कर्म निन्दितम् ।
हत्या लोकद्वयं येन विशन्ति धरणीतलम् ॥ ७ ॥ अर्थ-क्रोधित हुए मुनिभी इस जगतमें ऐसा निन्दित कार्य करते हैं कि जिससे दोनो लोक नष्ट करके नरकम पड़जाते हैं फिर अन्य सामान्य जनका तो कहनाही क्या ? ॥७॥
क्रोधावीपायनेनापि कृतं कर्मातिगर्हितम् ।
दग्ध्वा द्वारावती नाम पू: स्वर्गनगरीनिभा ॥८॥ अर्थ-देखो ! द्वीपायन नामके मुनिने क्रोधसे ऐसा निन्ध कार्य किया कि वर्गके समान सुन्दर द्वारकापुरी भस्म करदी ॥ ८ ॥
लोकदयविनाशाय पापाय नरकाय च ।
स्वपरस्यापकाराय क्रोधः शत्रुः शरीरिणाम् ॥९॥ अर्थ-जीवोंके क्रोधरूपी शत्रु इस लोक और परलोकको नष्ट करनेवाला है तथा नरकमें ले जानेवाला और पापको करनेवाला एवं निजपर अर्थात् दोनोंका अपकार करनेवाला है ॥ ९॥
अनादिकालसंभूतः कपायविषमग्रहः ।
स एवानन्तदुवारदुःखसंपादनक्षमः॥ १० ॥ अर्थ-यह कपायरूपी विपम ग्रह अनादिकालसे इस प्राणीके पीछे लगा हुआ है और यही अनन्त दुर्निवार दुःखोंको प्राप्त करनेमें समर्थ है ।। १० ॥
तस्मात्प्रशममालम्ब्य क्रोधवैरी निवार्यताम् ।
जिनागममहाम्भोधेरवगाहश्च सेव्यताम् ॥ ११ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि हे आत्मन् ! शान्तभावका अवलम्बन करके क्रोधरूप वैरीको निवारण कर और जिनागमरूपी महासमुद्रका अवगाहन कर । क्योंकि क्रोधनिवारण करनेका यही एक उपाय हैं ॥ ११ ॥
क्रोधवतेः क्षमैकेयं प्रशान्तौ जलवाहिनी । . उद्दामसंयमारामवृत्तिाऽत्यन्तनिर्भरा ॥ १२ ॥ __ अर्थ-क्रोधरूपी अग्निको शान्त करनेके लिये क्षमा ही अद्वितीय नदी है। क्षमाहीसे क्रोधाग्नि वुझती है तथा क्षमा ही उत्कृष्टसंयमरूपी वागकी रक्षा करनेके लिये अतिशय दृढ वाड़ है ।। १२ ॥
जयन्ति यमिनः क्रोधं लोकद्धयविरोधकं । तन्निमित्तेऽपि संप्राप्ते भजन्तो भावनामिमां ॥ १३ ॥