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ज्ञानार्णवः। साम्यसीमानमालम्ब्य कृत्वात्मन्यात्मनिश्चयम् ।
पृथक् करोति विज्ञानी संश्लिष्टे जीवकर्मणी ॥ ६ ॥ '. अर्थ-भेद विज्ञानी पुरुष है सो समभावकी सीमाको अवलंबन करके तथा अपनेमें ही अपने आत्माको निश्चय करके मिलेहुए जीव और कर्मको पृथक् २ करता है ॥६॥
साम्यवारिणि शुद्धानां सतां ज्ञानकचक्षुषाम् ।
इहैवानन्तवोधादिराज्यलक्ष्मीः सखी भवेत् ॥ ७ ॥ अर्थ-जो समभावरूपी जलसे शुद्ध हुये हैं और जिनके ज्ञानही नेत्र हैं ऐसे सत्पुरुपोंके इस ही जन्ममें अनन्त ज्ञानादिक लक्ष्मी सखी होती हैं । भावार्थ-कोई यह जानै कि समभावका फल परलोकमें होता है सो यह एकान्त नहीं है किन्तु इसही जन्ममें केवल ज्ञानादिककी प्राप्ति होती है ॥ ७ ॥
भावयख तथात्मानं समत्वेनातिनिर्भरम् ।
न यथा देपरागाभ्यां गृह्णात्यर्थकदम्बकम् ॥८॥ अर्थ-हे आत्मन् ! अपने आत्माको तू समभावसे अति निर्भररूप इस प्रकार भाव जिस प्रकारसे यह आत्मा रागद्वेषादिकसे पदार्थोंके समूहको ग्रहण न करै । भावार्थआत्माम ऐसा लीन हो कि जहां रागद्वेपादिक अवकाश न पावै ॥ ८ ॥
रागादिविपिनं भीमं मोहशार्दूलपालितम् ।
दग्धं मुनिमहावीरैः साम्यधूमध्वजार्चिषा ॥९॥ अर्थ-यह रागादिरूप भयानक वन है सो मोहरूपी सिंहके द्वारा रक्षित है, उस वनको मुनिरूपी महासुभटोंने समभावरूप अग्निकी ज्वालासे दग्ध करदिया है ॥९॥
मोहपङ्के परिक्षीणे शीण रागादिवन्धने । . नृणां हृदि पदं धत्ते साम्यश्रीविश्ववन्दिता ॥१०॥ अर्थ-पुरुषोंके हृदयमें मोहरूपी कर्दमके सुखनेसे तथा रागादि वन्धनोंके दूर होनेपर जगत्पूज्या समभावरूप लक्ष्मी निवास करती है । भावार्थ-मलिन घरमें और बंधनसहित घरमें उत्तम स्त्री प्रवेश नहीं करती, इसी प्रकार समभावरूप लक्ष्मी भी रागद्वेपमोहादिसहित हृदयमें प्रवेश नहीं करती ॥ १० ॥ __ आशाः सद्यो विपद्यन्ते यान्त्यविद्याः क्षयं क्षणात्। .
म्रियते चित्तभोगीन्द्रो यस्य सा साम्यभावना ॥११॥ अर्थ-जिस पुरुपके समभावकी भावना है उसके आशायें तो तत्काल नाश हो । जाती हैं, अविद्या क्षणभरमें क्षय हो जाती है उसी प्रकार चित्तरूपी सर्प भी मर जाता है , अर्थात् भ्रमणसे रहित हो जाता है यही समभावनाका फल है ॥ ११॥