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ज्ञानार्णवः । अर्थ-यह बड़ा खेद है कि जहां अमृत तौ विपके लिये हो और ज्ञान मोहके लिये हो और ध्यान नरकके लिये होता है सो जीवोंकी यह विपरीत चेष्टा आश्चर्य उत्पन्न करती है. भावार्थ-जहां प्रशस्त वस्तु भी अप्रशस्त हो जाती है उसका यहां आश्चर्य किया है ॥ १० ॥
अभिचारपरैः कैश्चित्कामक्रोधादिवञ्चितैः। भोगार्थमरिघातार्थ क्रियते ध्यानमुद्धतैः ॥ ११ ॥ ख्यातिपूजाभिमानातैः कैश्चिचोक्तानि सूरिभिः । पापाभिचारकर्माणि क्रूरशास्त्राण्यनेकधा ॥१२॥ अनासा वश्चकाः पापा दीना मार्गदयच्युताः।
दिशंत्वज्ञेष्वनात्मज्ञा ध्यानमत्यन्तभीतिदम् ॥ १३ ॥ अर्थ-अभिचार कहिये वश्यांजनादिक व्यापार ही है आशय जिनके ऐसे तथा कई एक कामक्रोधादिकसे वंचित हुए उद्धत पुरुषोंके द्वारा भोगोंके लिये और शत्रुओंके घातके लिये ध्यान किया जाता है ॥ ११ ॥ तथा कितनेक अन्यमती आचार्योने ख्याति पूजा अभिमानसे पीड़ित होकर पापकार्योंकी विधिवाले अनेक शास्त्र रचे हैं सो वे पापी हैं, अनाप्त हैं, कुमार्गको चलानेवाले हैं, ठग हैं, दीन हैं, दोनो लोकके मार्गसे भ्रष्ट हैं, अनात्मज्ञ हैं अर्थात् जिनको अपने आत्माका ज्ञान नहीं है. वे मूरों में ही अत्यन्त भयके देनेवाले ध्यानका उपदेश करें, (ज्ञानी) विवेकी पुरुष तो उनका उपदेश कदापि अंगीकार नहीं करते ॥ १२ ॥ १३ ॥ इस कारण कहते हैं कि,
संसारसंभ्रमश्रान्तो यः शिवाय विचेष्टते ।
स युक्त्यागमनिर्णीते विवेच्य पथि वर्तते ॥ १४ ॥ अर्थ-जो पुरुष संसारके भ्रमणसे खेदखिन्न होकर मोक्षके लिये चेष्टा करता है वह तौ विचार कर युक्ति और आगमसे निर्णय किये हुए मार्गमें ही प्रवर्तता है उन ठगोंके प्ररूपण किये मार्गमें कदापि नहीं प्रवर्तता ॥ १४ ॥ ___ अब यहां ध्यानका खरूप कहते हैं,
उत्कृष्टकायवन्धस्य साधोरन्तर्मुहर्ततः।
ध्यानमाहुरथैकाग्रचिन्तारोधो बुधोत्तमाः॥ १५॥ अर्थ-उत्कृष्ट है कायका बंध कहिये संहनन जिसके ऐसे साधुका अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त एकाग्र चिन्ताके रोषनेको पंडित जन ध्यान कहते हैं. वही उमाखामी महाराजने तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है कि-"उत्तमसंहननस्सैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥"