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ज्ञानार्णवः ।
२५३ मोक्षमार्गमें प्रवर्तनेवालोंकी विरलता है अर्थात् जो साम्यमें रहकर मोक्षमार्गको साथै ऐसे योगीश्वरोंका तो प्रायः अभाव ही है, किसी दूर क्षेत्र कालमें हो तो दो तीनहीं होंगे बहुलताका तो अभाव ही है ॥ ३३ ॥
. इस प्रकार साम्यका वर्णन किया, यह ध्यानका प्रधान अंग है इसके विना लौकिक प्रयोजनादिक लिये जो अन्यमती ध्यान करते हैं सो निष्फल है, मोक्षका साधन तौ साम्य-1 सहित ध्यानहीं है.॥
मोह राग रुप बीततै, समता धरै जु कोय । सुख दुख जीवित मरण सब, सम लखि ध्यानी होय ॥ २४ ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे साम्यवर्णनं नाम चतुर्विशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ २४ ॥
अथ पञ्चविंशं प्रकरणम् ।
आगे ध्यानका वर्णन करते हैं,
साम्यश्री तिनिःशकं सत्तामपि हृदि स्थितिम् ।
धत्ते सुनिश्चलध्यानसुधासम्बन्धवंर्जिते ॥१॥ अर्थ-सत्पुरुषोंका हृदय यदि भले प्रकार निश्चल ध्यानरूप अमृतके सम्बन्धसे रहित हो तो उसमें यह साम्यरूप लक्ष्मी अतिनिःशंकतासे अपनी स्थिति धारण नहीं करती । भावार्थ-समभाव ध्यानसे निश्चल ठहरता है इस कारण ध्यानका उपदेश है ॥ १ ॥
यस्य ध्यानं सुनिष्कम्प समत्वं तस्य निश्चलम् ।
नानयोर्विद्ध्यधिष्ठानमन्योऽन्यं स्यादिभेदतः ॥ २॥ अर्थ-जिस पुरुषके ध्यान निश्चल है उसके समभाव भी निश्चल है इन दोनों के अधिष्ठान (आधार) परस्पर भेदसे नहीं है अर्थात् ध्यानका आधार समभाव है और समभावका आधार ध्यान है ॥ २ ॥
साम्यमेव न सद्ध्यानात्स्थिरीभवति केवलम् ।
शुद्ध्यत्यपि च कर्मोंधकलङ्की यन्त्रवाहकः ॥३॥ अर्थ-समीचीन प्रशस्त ध्यानसे केवल साम्य ही स्थिर नहीं होता किन्तु कर्मके समूहसे मलिन यह यन्त्रवाहक जीव भी शुद्ध होता है अर्थात् ध्यानसे कर्मोंका क्षय भी होता