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ज्ञानार्णवः।
२६९ तथा-अहो! देखो जो समस्त भुवनोंके जीवोंकरके पूजनीय, सुभटोंके समूहसे सेवने योग्य, स्वजन धनादिकसे पूर्ण, रत और स्त्रियोंसे सुंदर, अमर्यादिक विभवके सार ऐसे समस्त भोगोंका स्वामित्व अपने शत्रुओंके समूहको नाश करके मैने पाया है ॥ ३२ ॥
तथा-पृथिवीको भेदकर जीवोंके समूहको मारकर दुर्ग (गों)में प्रवेश करके, समुद्रको उलंघ करके बड़े गर्वसे उद्धत शत्रुओंके मस्तकपर पांच देकर मैने उदार खामीपना वा राज्य किया है ॥ ३३ ॥
तथा--जल अनि सर्प विषादिकके प्रयोगोंसे विश्वास दिलाना, भेद करना, दूतभेद करना इत्यादि प्रपंचोंसे शत्रुओंके समस्त समूहोंका नाश करके यह मेरा प्रबल प्रताप है सो स्फुरायमान है (प्रगट है). मैं ऐसा ही प्रतापी हूं ॥ ३४ ॥ इत्यादिक मनुप्योंके विषयसंरक्षणके सन्निबंध कारणोंका जो चितवन करना उसको ही जिनेन्द्र भगवानने चौथा रौद्रध्यान कहा है ॥ ३५॥
इसप्रकार रौद्रध्यानका वर्णन किया । अब इसमें लेश्या तथा चिहादिकका वर्णन करते हैं
कृष्णलेश्यायलोपेतं श्वभपातफलाङ्कितम् ।
रौद्रमेतद्धि जीवानां स्यात्पश्चगुणभूमिकम् ॥ ३६॥ अर्थ-यह रौद्रध्यान कृष्ण लेश्याके वल कर तो संयुक्त है और नरकपातके फलसे चिहित है तथा पंचम गुणस्थानपर्यन्त कहा गया है ॥ ३६ ॥
प्रश्न-यहां कोई प्रश्न फरै कि रौद्रध्यान पांचवें गुणस्थानमें कहा सो सिद्धान्तमें पांचवें गुणस्थानमें लेश्या तो शुभ कही है और नरक आयुका बंध भी नहीं है सो पंचम गुणस्थानमें रौद्रध्यान कैसे हो?
उत्तर-यह रौद्रध्यानका वर्णन प्रधानतासे मिथ्यात्वकी अपेक्षा है । पांचवें गुणस्थान सम्यक्त्वकी सामर्थ्यसे ऐसे रौद्र परिणाम नहीं होते ! कुछ गृहकार्यके संस्कारसे किंचित् लेशमात्र होता है उसकी अपेक्षा कहा है सो यह नरकगतिका कारण नहीं है ।
ऋरता दण्डपारुष्यं वञ्चकत्वं कठोरता।
निस्त्रिंशत्वं च लिङ्गानि रौद्रस्योक्तानि सूरिभिः ॥ ३७॥ . अर्थ-तथा क्रूरता (दुष्टता), दंडकी समान परुपता, वञ्चकता, कठोरता, निर्दयता ये रौद्रध्यानके चिह आचार्योंने कहे हैं ॥ ३७॥
विस्फुलिङ्गनिभे नेत्रे भ्रूवक्रा भीषणाकृतिः । कम्पः खेदादिलिङ्गानि रौद्रे वाद्यानि देहिनाम् ॥ ३८ ॥