________________
२७०
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-अग्निके फुलिंग समान लाल नेत्र हों, भौंहें टेढी हों, · भयानक आकृति हो, देहमें कंपन वा पसेवौंका होना इत्यादि रौद्रध्यानके बाह्य चिह्न हैं ॥ ३८॥
क्षायोपशमिको भावः कालश्चान्तमुहर्तकः।
दुष्टाशयवशादेतदप्रशस्तावलम्बनम् ॥ ३९॥ अर्थ यह रौद्रध्यान क्षायोपशमिक भाव है, इसका काल अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त है. और यह दुष्टाशयके वशसे अप्रशस्त वस्तुका अवलंबन करनेवाला है अर्थात् यह ध्यान खोटी वस्तुपर ही होता है ।। ३९ ॥
दहत्येव क्षणार्द्धन देहिनामिदमुत्थितम् । __ असद्ध्यानं त्रिलोकश्रीप्रसवं धर्मपादपम् ॥४०॥
अर्थ-यह अप्रशस्त ध्यान जीवोंके होता है तब तीन लोककी लक्ष्मीके उत्पन्न करनेवाले धर्मरूपी वृक्षको क्षणार्द्धमें जला देता है ॥ ४० ॥ अब आतरौद्र ध्यानोंका संक्षेप कहते हैं,
उपजातिः। इत्यातरौद्रे गृहिणामजलं ध्याने सुनिन्ये भवतः खतोऽपि ।
परिग्रहारम्भकषायदोषैः कलङ्कितेऽन्तःकरणे विशङ्कम् ।। ४१॥ अर्थ-इस प्रकार ये आर्त और रौद्रध्यान गृहस्थियोंके परिग्रह आरंभ और कषायादि दोषोंसे मलिन अन्तःकरणमें खयमेव निरन्तर होते हैं इसमें कुछ भी शंका नहीं है, ये दोनों ध्यान निन्दनीय हैं ॥ ४१ ॥
कचित्कचिदमी भावाः प्रवर्तन्ते मुनेरपि ।
प्राकर्मगौरवाञ्चित्रं प्रायः संसारकारणम् ॥ ४२ ॥ अर्थ-ये भाव किसी २ समय पूर्वकर्मके गौरवसे मुनिके भी होते हैं सो यह पूर्वकर्मके उदयकी विचित्रता है, बाहुल्यसे ये संसारके कारण हैं ॥ ४२ ॥
खयमेव प्रजायन्ते विना यत्नेन देहिनाम् । ____ अनादिदृढसंस्काराहानानि प्रतिक्षणम् ॥ ४३ ॥
अर्थ-ये दुर्ध्यान हैं सो जीवोंके अनादि कालके संस्कारसे विना ही यत्नके खयमेव निरन्तर उत्पन्न होते हैं, कर्मका उदय प्रबल है ॥ ४३ ॥
___मालिनी। इतिः विगतकलकैवर्णितं चित्ररूपं
दुरितविपिनबीजं निन्द्यदुध्यानयुग्मम् । १'चञ्चित' इत्यपि पाठः। २ 'करहकन्द' इत्यपि पाठः।