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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
__ आख्यानकी। असत्यसामथ्यवशादरातीन्
नृपेण वान्येन च घातयामि । अदोषिणां दोषचयं विधाय
चिन्तेति रौद्राय मता मुनीन्द्रः ॥२०॥ अर्थ-मैं अदोषियोंमें दोपसमूहको सिद्ध करके अपने असत्य सामर्थ्यके प्रभावसे अपने दुशमनोंको राजाके द्वारा वा अन्य किसीके द्वारा घात करूंगा इसप्रकार चिन्ता करनेको भी मुनींद्रोंने रौद्रध्यान माना है ॥ २० ॥
पातयामि जनं मूढ़ व्यसनेऽनर्थसंकटे ।
वाकौशल्यप्रयोगेण वाञ्छितार्थप्रसिद्धये ॥ २१॥ अर्थ-तथा जो इसप्रकार विचार करै कि मैं वचनकी प्रवीणताके प्रयोगोंसे वांछित प्रयोजनकी सिद्धिके लिये मूढ़ जनोंको अनर्थक संकटमें डालदूं, ऐसा चतुर हूं, इस प्रकारका विचार भी रौद्रध्यान है ॥ २१ ॥
वंशस्यं । इमान् जडान वोधविचारविच्युतान्
प्रतारयाम्यद्य वचोभिरुन्नतः । अमी प्रवत्स्यन्ति मदीयकौशला
दकार्यवगैध्विति नात्र संशयः ॥ २२ ॥ अर्थ-फिर इसप्रकार विचार करै कि-ये ज्ञानरहित मूर्ख प्राणी हैं, इनको ऊंचे चतुराईके वचनोंसे अभी ठग लेता हूं मैं ऐसा चतुर हूं। तथा ये प्राणी मेरी प्रवीणतासे अकायोंमें प्रवतेगा ही इसमें कुछ संदेह नहीं है, ऐसे विचारको भी मृपानंदी रौद्रध्यान कहते हैं ॥ २२ ॥
अनेकासत्यसंकल्पैः प्रमोद प्रजायते ।
मृषानन्दात्मकं रौद्रं तत्प्रणीतं पुरातनैः ॥ २३ ॥ अर्थ-इस प्रकार अन्य भी अनेक प्रकारके असत्य संकल्पोंसे जो प्रमोद (हर्ष) उत्पन्न हो उसे पुरातन पुरुषोंने रौद्रध्यान कहा है ॥ २३ ॥ ___ इस प्रकार रौद्रध्यानके दूसरे भेद मृषानन्दका वर्णन किया । अव चौर्यानन्द नामक तीसरे भेदका वर्णन करते हैं,
चौर्योपदेशवाहुल्यं चातुर्य चौर्यकर्मणि । यचौकपरं चेतस्तचौर्यानन्द इष्यते ॥ २४ ॥