________________
रायचन्द्रजैन शास्त्रमालायाम्
२६४
अर्थ — नभश्वर पक्षी, जलचर मत्स्यादिक और स्थलचर पशु इन जीवोंका खंड करने दग्ध करने बांघने छेदन करने घातने आदिमें यत्न करना तथा इनके चर्म नख हाथ नेत्रादिकके नष्ट करने ( उखाड़ने) में जो कौतूहलरूप ( क्रीडारूप ) परिणाम हो वही यहां रौद्रध्यान है, ऐसे ऊंचे चित्तवाले पुरुषोंके वचन हैं ॥ ८ ॥
अस्य घातो जयोऽन्यस्य समरे जायतामिति । स्मरत्यङ्गी तदप्याहू रौद्रमध्यात्मवेदिनः ॥ ९ ॥ अर्थ --- युद्ध में इसका घात हो और उसकी जीत हो इसप्रकार स्मरण करै (विचारे) उसे भी अध्यात्मके जाननेवालोंने रौद्रध्यान कहा है ॥ ९
श्रुते दृष्टे स्मृते जन्तुवधाद्युरुपराभवे ।
यो हर्षस्तद्धि विज्ञेयं रौद्रं दुःखानलेन्धनम् ॥ १० ॥
अर्थ —जीवोंके वध बंधनादि तीव्र दुःख वा अपमान के सुनने देखने वा स्मरण करने में जो हर्ष होता है उसे भी दुःखरूपी अग्निको इंधन की समान रौद्रध्यान जानना ॥ १० ॥ अहं कदा करिष्यामि पूर्ववैरस्य निष्क्रयम् ।
अस्य चित्रैश्चेति चिन्ता रौद्राय कल्पिता ॥ ११ ॥
अर्थ - इस पूर्वकाल के वैरीका अनेक प्रकार के घातसे मैं किस समय बदला लूंगा ऐसी चिन्ता भी रौद्रध्यानके लिये कही गई है ॥ ११ ॥
किं कुर्मः शक्तिवैकल्याज्जीवन्त्यद्यापि विद्विषः । तमुत्र हनिष्याम प्राप्य कालं तथा बलम् ॥ १२ ॥
अर्थ - फिर ऐसा विचारै कि- हम क्या करें ? शक्ति न होनेके कारण शत्रु अभीतक जीते हैं नही तो कभी मार डालते. अस्तु, इस समय नहीं तौ न सही परलोकमें समय और शक्तिकों प्राप्त होकर किसी समय अवश्य मारेंगे, इसप्रकार संकल्प करना भी रौद्रध्यान है ॥ १२ ॥
मालिनी छन्दः ।
अभिलषति नितान्तं यत्परस्यापकारं व्यसनविशिखभिन्नं वीक्ष्य यत्तोषमेति ।
यहि गुणगरिष्ठं द्वेष्टि दृष्ट्वान्यभूतिं
भवति हृदि सशल्यस्तद्धि रौद्रस्य लिङ्गम् ॥ १३ ॥
अर्थ- जो अन्यका बुरा चाहै तथा परको कष्ट आपदारूप बाणोंसे भेदा हुआ दुःखी देखकर सन्तुष्ट हो तथा गुणोंसे गरुवा देख अथवा अन्यके संपदा देखकर द्वेषरूप हो अपने हृदयमें शल्यसहित हो सो निश्चय करके रौद्रध्यानका चिह्न है ॥ १३ ॥